अघासुर-वध / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
कोनहु एक दिन अरुण उषा लाली छटि शुभ्र प्रभात
उदय लेल रवि, बहइत छल शीतल शुचि मंद बसात
उठि भोरे लय संग सखा हरि वन-बाधक दिस जाय
गाय चरबइत खेलइत-धुपइत वन दिस बढ़ले जाय
खेल करथि मिलिजुलि कत मेल अलेल बाल बहुरंग
बंसी बजबथि कृष्ण ताल दय नाचथि-काछथि संग
ग्बालबाल क्यौ कू-कू करइछ कोकिल कलरब सूनि
क्यै फल-फूल लोढ़ि, क्यौ कबल ओढ़ि नुका किछु गूनि
एही मध्य अजगरक रूप धय दुष्ट अघासुर आबि
छेकल पथ, अथ मायामय ओ गुफा जकाँ मुह बाबि
गिरिक गुहा बुझि कौतुकवश कत धेनु-वत्सकेँ हाँकि
पैसल जाय, सहज अघ लेलक मुहकेँ दाँतहु टाँकि
उदर-दरीमे बंद सबहु निष्पंद भेल औनाय
नन्दनन्दनहु ततय अवस्थित बुझि मृदु मुसुकाय
लघुतम रूप महत्तम कयलनि अकसक असुर अघाय
फटल पेट नहि अटल विराट पुरुष तानल तत काय
बहरायल जत छलय समायल सहसा शिशु-समुदाय
देखल मुइल पड़ल अजगर गर फटल अधासुर हाय