भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अघोरी लालसा / ओमप्रकाश सारस्वत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हॉऊ स्वीट !
हॉऊ लवली !
हॉऊ ब्यूटीफुल !

यह कहते हुए हम प्रतिदिन
न जाने कितने असत्य जालों को तानते रहते हैं
शाब्दिक मुद्राओं के प्रभामण्डलीय वितान में

ताकि उनके प्रशंसकों की सूचि में
हम भी शामिल हो जाएँ
और
'डायरी' नामक 'मार्क' लगा
केवल हमारा ही नाम दिखे

ऐसा ही नाम हम
किसी दूसरी जगह भी देखना चाहते हैं
'डायरी' में क्रम के पहले नम्बर पर

हम एक नाम, एक रूप होने के स्थान पर
बहुनाम बहुरूप हो गये हैं
यह हमारी प्रभविष्णुता है !

या फिर
हम जो एक से अनेकधा
और एकत्र से अनेकत्र
दिखना चाहते हैं
रूपांतरित होकर
यह हमारी अघोरी लालसा की
शतमुखी वृत्ति है
जो हमारे खुद का पर्याय हो रही है

हम इतने ढोंगी हो गये हैं,कि
सत्य के ढोल में छिपे
जितने बजते हैं, उतने ही बड़बड़ाते हैं
झूथी प्रशंसा की थाप पर

यह जानते हुए भी कि
सिर्फ पोला ढोल बजता है

मैं देख रहा हूँ.आजकल
मुँह पर गालियाँ प्राप्त करना कितना मुश्किल है
मूँह पर प्रशंसा पाने के मुकाबिले

हम आँगन में मुश्किल से निगली हुई
प्रश6सा की पीक को
पिछवाड़े जाकर
गालियों की कड़वाहट के सथ
तुरंत उगल देते हैं
निर्द्वन्द्व भाव से

हमारा व्यक्तित्व असल में
गालियों के स्थान पर प्रशंसा
और प्रशंसा के स्थान पर
गालियों जैसा हो गया हि

(किंतु हमारा व्यक्तित्व असल में
कैसा हो गया है
यह समझ में आता नहीं)
लगता है कि कुछ अरसे के बाद लोग
पत्तियों को जड़ें
और जड़ों को तना
कहना शुरू कर देंगे
ओर हम मान लेंगे
क्योंकि यहाँ जो कुछ भी होता है
सब कहने से ही तो होता है