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अच्छा लगे कि बुरा किसी को बोलूँ खरा-खरा / डी. एम. मिश्र

अच्छा लगे कि बुरा किसी को बोलूँ खरा-खरा
सावन का अंधा मैं नहीं कि देखूँ हरा-हरा

शाम को घर वापस लौटूँगा क्या गारन्टी है
घर से रोज़ निकलता हूँ पर कितना डरा-डरा

आप बतायें कहाँ सही है कु़दरत का इन्साफ़
ख़ाली है तालाब हमारा बादल भरा-भरा

जीवन में आँधी की तरह वो आया चला गया
भूल चुका हूँ उसको, पर यादें हैं ज़रा-ज़रा

अब तो जो चाहो हो जाता है कम्प्यूटर से
सहराओं में फूल खिला लो कर दो हरा-भरा

जाने कब उठ गया ग़रीबी-रेखा केे ऊपर
नीमर तो वैसा ही दिखता अब भी मरा- मरा