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अच्छा है कि मैं अकेली नहीं / इला कुमार

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अच्छा है कि मैं अकेली नहीं
मेरे साथ हैं
चेतना के कुहरे में टिमटिमाते
नए पुराने कितने ही अक्स

चौखट के भीतर चुप बैठे माँ-पिता की बरसों पुरानी भंगिमा
तिमंजिले की मुण्डेर से झाँकते मौसेरे भाई-बहनों के चेहरे
चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसी, बुआ और ममेरी फुफेरी बहनों की कथाएँ
अनगिनत क़िस्से मेरे साथ चलते हैं
जहाँ कहीं भी मैं गई
विभिन्न वजूदो के कण मेरे आगे-पीछे चले
उनके बीच घर के नौकर-नौकरानियों की अम्लान छवि

जाड़े की रातों में मालिश के तेल की कटोरी लिए
बिस्तर के बगल में बैठी दाई
शुरूआती कालेजी दिनों की सुबहों में
चाय के गर्म कप के लिए
रसोईघर में पण्डित से डाँट सुनता छोटा भाई
जाने अनजाने रस्तों पर ये सभी मेरे साथ चल पडते हैं

नव जागरित व्यक्तियों की जमात जब
अपने आसपास के लोगो की उपस्थिति को नकार
विदेशी अकेलेपन का स्वांग भरती है
स्वांग रचते-रचते अभिनेता स्वयं पात्र में परिवर्तित हो जाते हैं

विलायती उच्छिष्ट के दवाब तले थरथराती हुई
नई सदी की दहलीज पर उगे दीमको की बस्ती के बीच दिग्भ्रमित
मन दहल जाता है
यह कैसी विरासत

कितना अच्छा है
कि
मैं अकेली नहीं हूँ !!!