भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अछूत का इनार-5 / मुसाफ़िर बैठा
Kavita Kosh से
सोचता हूं बरबस यह
कि इस इनार से
अपने उद्घाटक हाथों से
पूरे समाज की गवाही-बीच
जब भरा होगा पहली दफा
दादी ने सर्जक उत्साह से पानी
और चखा होगा उसका विजयोन्मादी स्वाद
तो कितना अनिर्वचनीय सुख तोष मिला होगा
दादी की जिह्वा की उन स्वादगं्रथियों को
जो बारंबार जले थे
धनुखी हलवाई के इनार का
पी मजबूर पानी
और अब आत्मसम्मान खुदवजूद की
मिठास के परिपाक की कैसी महक
तुरत तुरत मिल रही होगी इसमें दादी को