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अछूत कौन? / बाल गंगाधर 'बागी'

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मेरी जवान का वक्त
गदा भाजने में नहीं
जानवर उठाने में बीता है
पहलवानी तो दूर अखाड़े में
कुदाल से मिट्टी संवारते बीता है

हाथ मंे छाले पड़ जाते थे
जब-जब हम कुदाल चलाते थे
हमारे हाथ से संवारी मिट्टी पर
वे लड़ के पहलवान बन जाते थे

मेरे पसीने मिट्टी में गिरे
उसमें लड़ने वाले योद्धा बने
मेरा पसीना उन पर लगा
पर वे अछूत कभी भी न हुये

आखिर, मैं ही क्यों अछूत होता हूँ
अनाज अपने हाथ से स्पर्श करता हूँ
जानवर का दूध हाथ से दुहते हैं
वे दोनों खाकर अछूत नहीं होते हैं

हल जोतते समय मिट्टी रौंदता हूँ
शौच का काम यहीं कर पर करता हूँ
उसी मिट्टी का वे अनाज खाते हैं
पर वे अछूत नहीं हम अछूत कहलाते हैं

नदी नाले से खेत सींचे जाते हैं
जहाँ पानी में भैंस सूअर नहाते हैं
उस पानी से साग सब्जी उगाते हैं
उसी साग-सब्जी को चाव से खाते हैं

तुमने यज्ञ में हजारों पशु की बलि दी
जैसी लेखनी तैत्रिय ब्राह्मण ने लिखी
गाय बैल घोड़ा सांड भेड़ तुम खाते रहे
उल्टे अछूत तुम हमें ही बताते रहे

प्रजनन के समय मेरी माँ ने ही
तुम्हारे मुँह में उंगली डाली
गले से खींच कर गंदगी निकाली
तब तुम्हारे घर में आई सुबह की लाली

उसे तुम दलित नारी कहते हो
और खुद को बलशाली कहते हो
माँ ने खींच कर तुम्हें जन्म दिया
तुम्हें तुम्हारी माँ को जीवन दिया

पर तुमने कभी सच नहीं सोचा
जातिवादी होने से खुद को नहीं रोका
लोगों के साथ ऊंच-नीच करते रहे
उल्टे दलितों को ही नीव कहते रहे