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अछूत महिला / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
इन आंखों में नमी भी है, गम के साये भी
कुछ सावन की फहारे हैं, कुछ घटायें भी
आवो साथियों इन बादलों के पार चलें
प्यार की बौंछार में, खुद को नहलायें भी
ये मौसम जो आते हैं, करवट बदल-बदल
लड़खड़ाते आंसु में, खुद का घर बनाये भी
वो जुल्फें संवारते रहे, गजरे संवार करके
मैं धूल में लड़ती रही, पसीने में नहाये भी
मैं चि़राग सी रौशन, ज्वाला में बदल जाती हूँ
मगर इस चाँद की चाँदनी कोई बताये भी
ये जन्नत के नजारों, हम तुम्हें नहीं मानते
कोई फुटपाथ पर रहकर हमें दिखाये भी
कितना बोझ है सर पर, जातिय नीचता का
कलकार कोई इस दर्द को समझाये भी
दलित नारी हूँ इसलिए अब बाग़ी हूँ
सामंतियों अब बगावत समझ जाओ भी