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अजनबी अपना ही साया हो गया है / कविता किरण
Kavita Kosh से
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अजनबी अपना ही साया हो गया है
खून अपना ही पराया हो गया है
मांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है
बीज बरगद में हुआ तब्दील तो
सेर भी बढ़कर सवाया हो गया है
बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है
बात घर की घर में थी अब तक 'किरण'
राज़ अब जग पर नुमायाँ हो गया है