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अजनबी ख़त-ओ-ख़ाल / सूफ़ी तबस्सुम
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					ये किस ने मिरी नज़र को लूटा
हर चीज़ का हुस्न छिन गया है
हर शय के हैं अजनबी ख़त-ओ-ख़ाल
बढ़ते चले जा रहे हैं हर सम्त
मौहूम सी बे-रूख़ी के साए 
कुछ इस तरह हो रहा है महसूस 
जैसे किसी शय का नक़्श-ए-मानूस
आ आ के क़रीब लौट जाए
बेगाना हूँ अपने आप से मैं
और तू भी है दूर दूर मुझ से 
कुछ ऐसे बिखर बिखर गए 
जल्वों के समेटने को गोया 
आँखों में सकत नहीं रही है 
क्या तू ने कोई नक़ाब उल्टा 
या आज कोई तिलिस्म टूटा !
ये किस ने मिरी नज़र का लूटा 
हर शय के हैं अजनबी ख़त-ओ-ख़ाल
	
	