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अजनबी शहरों की शामें / भूपिन्दर बराड़

Kavita Kosh से
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अजनबी शहरों की शामें होती हैं समझदार
वे बच निकलती हैं सरासर आपको बिना छुए
उन पर होती है बारीक़ धूल की एक ठंडी पर्त
पुरानी किताबों की किसी दुकान में
जैसे होती है किताबों पर
जिन्हें छुआ न हो किसी ने सालों से

सब कुछ समतल होता है अजनबी शहरों में
आप ठिठकते नहीं किसी मोड़ पर
अचानक कुछ याद आने से,
न मुड़कर ढूंढते हैं
भीड़ में कोई पहचानी हुई आवाज़

एक अजनबी शहर में शाम होते ही
आप मुट्ठी में भींच लेना चाहते हैं
धूप के आखिरी टुकड़े को
जो बालू की तरह किरता है उंगलीओं से

जब आप अजनबी शहर छोड़ते हैं
तो शाम साथ नहीं आती,
वह वहीँ ठहर जाती है
होटल की लौटाई हुई चाबीओं के साथ

फिर आप सुनते हैं गाड़ी की गड़गड़ाहट
आधे खाली डिब्बे के कोने में सिमटे
आपको लगता है गहरी शिद्दत से
कि कितने अकेले हैं आप
कितना सूना है आपका जीवन

और फिर लगता है
इतना भी कष्टमय नहीं होता अकेलापन
जब आप अपने नहीं, अजनबी शहर में होते हैं
आप नहीं जानते जहाँ की भीड़ को
नहीं पहचानते बिखरी हुई परछाइयों को

इसी छिछली सांत्वना के साथ
आप खिड़की के ठंडे शीशे पर
टिका देते हैं अपनी गाल
और सुनते हैं बाहर
रात के फिसलते हुए सन्नाटे को

अगर सिगरेट पीने की लत छूटी नहीं
तो आप निकल आते हैं
डिब्बे के गलियारे में
और फिर धुआँ निगलते हुए
हँसने लगते हैं
यह सोचकर
कि उस अजनबी शहर के बीचोंबीच
अगर आप अचानक बोलने लगते
अपनी मातृभाषा
तो भी कोई नहीं देखता
आपको अचम्भे से