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अजब देस / दिनेश कुमार शुक्ल

न लेना न देना न खोना न पाना
न रोना न गाना न लिखना न पढ़ना
पंचर हुई सायकिल की तरह
खु़द को ढोता हुआ वो कहीं जा रहा है
उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है
कि ये रास्ता किस तरफ़ जा रहा है
जो होना था वो क्यूँ हुआ इस तरह
उसने सोचा नहीं था कभी इस तरह
गये जाने वाले बहुत दूर आगे
वो आता हुआ लग रहा जा रहा है

न ताक़त न हिम्मत
न चाहत न राहत
न आगे न पीछे न ऊपर न नीचे
कहीं कोई सूरत नहीं दिख रही है
कोई उसको खींचे लिये जा रहा है,

अगर हार वो मान भी ले तो क्या है
सितमगर को पहचान भी ले तो क्या है
ये एक सिलसिला जो चला आ रहा है
उसे तोड़ने क्या कोई आ रहा है

नहीं दिख रहा दूर तक एक पुतला
और मुश्किल है इसको बियाबान कहना
हवा में भरी सिसकियों को दबाता
हुआ कोई सदियों जिए जा रहा है

अकेला नहीं वो ख़ुद इक क़ाफिला है
जो सपनों का सौदा लिये जा रहा है
कभी लुट रहा है कभी पिट रहा है
मगर पार सरहद किए जा रहा है,
पहुँचता है उस देश जिसमें न कुछ है
जमीं भी नहीं आस्मॉं भी नहीं है
नहीं कोई उस देस का रहने वाला
वही याद आता चला जा रहा है ।