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अजब मकाँ है कि जिसमें मकीं नहीं आता / परवीन शाकिर
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					अजब मकाँ है कि जिसमें मकीं नहीं आता 
हुदूद ए शहर में क्या दिल कहीं नहीं जाता 
मैं जिसके इश्क़ में घर बार छोड़ बैठी थी 
यही वो शख्स है मुझको यकीं नहीं आता 
मज़ा ही शेर सुनाने का कुछ नहीं जब तक 
कसीदागोयों में वो नुक्ताची नहीं आता 
फ़िशार जाँ के बहुत हैं अगर नज़र आएँ 
हर एक ज़लज़ला ज़ेर ए ज़मीं नहीं आता
	
	