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अज़ीज़ जान से ज्यादा है शायरी कि तरह / सलीम रज़ा रीवा
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अज़ीज़ जान से ज्यादा है शायरी कि तरह
सदा वो साथ में रहता है ज़िन्दगी की तरह!
क़सम जो खाते थे संग संग मेंजीने मरने की
मेरी गली से गुज़रता है अज़नबी की तरह!
उसी के नूर से दीवारो दर ये रौशन है
वो मेरे दिल में समाया है रौशनी कि तरह!
वो जब भी आतें है जुल्फ़े बिखेर कर छत पे
अंधेरी रात भी लगती है चांदनी कि तरह!
बिखर के माला से मोती का कुछ वजूद नहीं
मैं चाहता हूँ जुड़े लोग इक कड़ी कि तरह!
न इनको तोड़ के फेंको गली में कूंचों में
ये बेटियां है चमन में हँसी कली कि तरह!
ये मांगता है "रज़ा" हर घड़ी दुआ रब से
कभी तो जी लूँ ज़रा देर आदमी कि तरह!