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अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये / उबैदुल्लाह 'अलीम'

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अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये
अब इस क़दर भी ना चाहो कि दम निकल जाये

मोहब्बतों में अजब है दिलों का धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये

मिले हैं यूं तो बहुत, आओ अब मिलें यूं भी
कि रूह गरमी-ए-इन्फास से पिघल जाये

मैं वो चिराग़ सर-ए-राह्गुज़ार-ए-दुनिया
जो अपनी ज़ात की तनहाइयों में जल जाये

ज़िहे! वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
खुशा! वो उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाये

हर एक लहज़ा यही आरजू यही हसरत
जो आग दिल में है वोह शेर में भी ढल जाये