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अजीब जुम्बिश-ए-लब है ख़िताब भी न करे / राशिद 'आज़र'

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अजीब जुम्बिश-ए-लब है ख़िताब भी न करे
सवाल कर के मुझे ला-जवाब भी न करे

वो मेरे क़ुर्ब में दूरी की चाशनी रक्खे
मिरे लिए मिरा जीना अज़ाब भी न करे

कभी कभी मुझे सैराब कर के ख़ुश कर दे
हमेशा गुमरह-ए-सहर-ए-सराब भी न करे

अजीब बरज़ख-ए-उल्फ़त में मुझ को रक्खा है
कि वो ख़फ़ा भी रहे और इताब भी न करे

वो इंतिज़ार दिखाए इस एहतियात के साथ
कि मेरी आँखों को महरूम-ए-ख्वाब भी न करे

वो रात भर कुछ इस अंदाज़ से करे बातें
मुझे जगाए भी नींदें ख़राब भी न करे

हर एक शेर में ‘आज़र’ नुक़ूश हैं उस के
मगर वो ख़ुद को कभी बे-नक़ाब भी न करे