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अजीब बात है खुद से नज़र चुराता है / सुरेश चन्द्र शौक़

अजीब बात है खुद से नज़र चुराता है

मगर वो दूसरों को आइना दिखाता है


जो कल तलक मिरी उँगली पकड़ के चलता था

वो शख़्स आज मुझे रास्ता दिखाता है


उसे ख़बर है कि बन जाएगी मिरी जाँ पर

मगर वो फिर भी मिरा ज़र्फ़ आज़माता है


बहुत ग़ुरूर न कर अपनी ख़ुशनसीबी पर

नसीब आज हँसाता है कल रुलाता है


उसे यक़ीं भी नहीं है ख़ुदा की रहमत पर

मगर वो बहरे—दुआ हाथ भी उठाता है


जिसे था दावा बहुत मेरी ख़ैर—ख़्वाही का

वो आज मेरी तबाही पे मुस्कुराता है


तू अपने दिल पे ही रख ‘शौक़’! ऐतमादो—यक़ीं

कि यह रफ़ीक़ ही दुख—सुख में काम आता है.


ज़र्फ़= हौसला; रहमत=दया; बहरे—दुआ=दुआ के लिए; ऐतमादो—यक़ीं=भरोसा; रफ़ीक़=साथी