अजीब सी होली हर रोज़ / अशेष श्रीवास्तव
अजीब-सी होली हर रोज़
मनाने लगे हैं लोग
मौका देख नया रंग ख़ुद पर
चढ़ाने लगे हैं लोग...
कभी ये तो कभी वह यहाँ
बन जाने में लगे हैं लोग
अपनी हक़ीकत ख़ुद से भी
छुपाने में लगे हैं लोग...
जब तक काम के लगते हैं
भीड़ लगाते हैं लोग
काम के ना रहें तो नज़रें
चुराने लगते हैं लोग...
पहले किसी बात पर ही थे
लड़ते आपस में लोग
बिना ही बात आपस में अब
लड़ने लगे हैं लोग...
एक कमरे के घर में परिवार
के साथ सुखी थे लोग
बहुत से कमरे होने पर भी
अब तनहा-दुखी हैं लोग...
ग़लत काम करते पकड़ने पर
आँखें झुका डरते थे लोग
ग़लत काम पर टोकने पर अब
आँखें दिखा डराते हैं लोग...
बिना किसी शर्त निभाते थे
ताउम्र रिश्ते तब लोग
ज़रा-ज़रा-सी बात पर लगे हैं
आज़माने रिश्ते अब लोग...
उम्र भर जो दुआ करते रहे
मरने की उसकी लोग
काँधा लगाने उसकी अरथी
आगे खड़े सबसे वह लोग...
ख़ुद को ख़ुदा बता दुनियाँ से
पुजवाते रहे जो लोग
जान पर उनकी जो बन आई
ख़ुदा को पुकारते वह लोग...