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अजोध्या से गुजरात / धर्मेन्द्र पारे
Kavita Kosh से
खो गई है किसी की गाड़ी
और किसी का गन्तव्य
किसी को पता नहीं है मंज़िल का
कोई मंज़िल की आस में बैठा है उनींदा
कोई सब कुछ गंवाकर
बढ़ रहा है नई शुरूआत की तरफ़
एक है जिसने भर लिया है घड़ा
खिसका रहा है कोई अपने ही
बेबस साथी की पोटली
महिला बोगी में बैठी वह
आँसुओं से नहला रही है अंधकार को
इस ट्रेन में दो स्वप्न मिल गए हैं
जो लम्बी यात्रा पर जाना चाहते हैं
इन सबकी यात्राओं के बीच
जो भी है कूड़ा-करकट उनको
बुहार लेना चाहते हैं कुछ
बेहद कोमल हाथ और बेहद निश्छल मन से
गुजरात से अजोध्या
अजोध्या से गुजरात
इन सबको भी स्थान दो भाई