आज मेरे अज्ञातवास का अंतिम दिन है
यह उन भूमिगत दिनों जैसा अज्ञातवास नहीं
जब
मैं और मेरे साथी
जेबों में बीड़ियाँ और दियासिलाई की डिब्बियाँ
झोलों में किताबें
और दिमागों में कुछ विचार—
रखने के अपराध में
ख़तरनाक घोषित कर दिये गये थे
नहीं
यह एक थकन भरी यात्रा का विश्राम—खंड नहीं
जिसमें मैं
इस यात्रा के अनुभव —बिम्बों को
अपने बचपन के खिलुअनों
किशोर दिनों के ग़रीब कपड़ों
और जवानी के संकल्पों
के साथ संजोना चाहता हूँ
दरसल यह मेरी एक चोर यात्रा का
आखिरी पड़ाव है
जहँ मैं उन लोगों की ठीक पहचान करता हूँ
जो इस यात्रा में
ख़रगोशों की तरह मेरे पास आए
छोटी—मोटी झूठी— सच्ची
सुख—सुविधाएँ लाए
लेकिन जब—
मेरे झोलों की किताबों को देखा
दिमाग़ के विचारों को समझा
तो एक दम भेड़ियों की तरह गुर्राए
उस वक़्त मुझे—
कवि सर्वेश्वर बहुत याद आए
‘तुम मशाल जलाओ
भेड़िया भाग जाएगा’
तब मैंने अपनी बीड़ी सुलगाई
और मेरे विचार मशालों की तरह जल उठे.