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अटके संवाद मार्च में / अनूप सेठी
Kavita Kosh से
कॉन्वेंट पढ़ी लड़की सी चबर चबर
सुबह
तड़के ही खलेर देती पँख
मार्च की दोपहर
मनहूस
भांय भांय सूरज
अचानक
उदास मायूस शाम
पसरी हुई
अँधेरे में अकस्मात रात
बेजानी
सारा का सारा दिन
किसी दूसरे शहर का
किसी दूसरे शहर में
किससे मिलना है
कहाँ जाना है
पता ही नहीं
फिर भी रहना है
कहना है बहुत कुछ
किससे
कब
पता ही तो नहीं।
(1986)