अटक गया विचार / बृजेश नीरज
माथे पर सलवटें,
आसमान पर जैसे
बादल का टुकड़ा थम गया हो;
समुद्र में
लहरें चलते रूक गईं हों,
कोई ख़याल आकर अटक गया।
धकियाने की कोशिश बेकार,
सिर झटकने से भी
निशान नहीं जाते।
सावन के बादलों की तरह
घुमड़कर अटक जाता है
वहीं
उसी जगह
उसी बिन्दु पर।
काफ़ी वज़नी है;
सिर भारी हो चला
आँखें थक गईं,
पलकें बोझल।
सहा नहीं जाता
इस विचार का वजन।
आदत नहीं रही
इतना बोझ उठाने की;
अब तो घर का राशन भी
भार में इतना नहीं होता कि
आदत बनी रहे।
बहुत देर तक अटका रहा;
वह कोई तनख़्वाह तो नहीं
झट खतम हो जाए।
अभी भी अटका है वहीं
सिर को भारी करता।
बहुत देर से कुछ नहीं सोचा।
सोचते हैं भी कहाँ
सोचते तो क्यों अटकता।
इस न सोचने,
न बोलने के कारण ही
अटक गयी है ज़िन्दगी।
तालाब में फेंकी गई पालीथीन की तरह
तैर रहा है विचार
दिमाग में
सोच की अवरूद्ध धारा में मण्डराता।
अब मजबूर हूं सोचने को
कैसे बहे धारा अविरल
फिर न अटके
सिर बोझिल करने वाला
कोई विचार।