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अटोप / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
पहाड़ों में, घाटियों में
बिखरता है धुंआ
और छिप जाता है सब कुछ
पेड़़ों से गिरी पत्तियां भी
मैं जानता हूं
कैसे छिप जाता है चेहरा
आभासी बातों से
नक़ली हैं वे सारी चीज़ें
जो याद दिलाती हैं
कि हम हैं
हम याने एक क़िस्म का मखौल
मैं जानता हूं, केवल मैं
कैसे बिखरता है धुंआ
और अटोप लिया जाता है हमं
हमारी कोई तस्वीर सुरक्षित नहीं
यह जंगल भरा हुआ है जले प्रतीकों से