अठारहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हम सुख किसको कहते हैं?
तुम दिखा निर्झरों की झर्-झर्
सरिताओं का मृदु कल-कल स्वर
सुरभित समीर की सर्-सर्-सर्
कहते-‘सुख से बहते हैं।
इसको हीसुख कहते हैं॥’
तुम दिखा पुष्प का मृदुल हास
अस्फुट कलिका का नव विकास
नभ के तारों का मौन हास
कहते-‘सुख से खिलते हैं।
इसको ही सुख कहते हैं॥’
जिनकी वैभव-आभा अनन्त
ऐश्वर्य-पूर्ण, सुरभित दिग्-दिगन्त
क्या वे सुख से रहते हैं?
इसको ही सुख कहते हैं?
मैं समझ न पाया सुषुमामय
जीवन-गायन की वह मृदु लय
जिसमें मानव हो मुक्त हृदय
आनन्द-नृत्य करते हैं।
सुख का अनुभव करते हैं॥
संकुचित स्वार्थ से जो ऊपर
उठ गए विश्व के हित भूपर
जिनको न आत्म-चिन्ता क्षण-भर
वे ही सुख से रहते हैं।
इसको ही सुख कहते हैं॥
जो आर्त-पीड़ितों के ऊपर
कर देते जीवन न्यौछावर
सेवा का जिनमें भाव अमर
वे ही सुख से रहते हैं।
इसको ही सुख कहते हैं॥