अढ़ाई दिन / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
कुछ ने मुर्गा चबाया
कुछ ने घास-पात खाया
कोट पैंट-पहनकर
गर्मी में, वातानुकूलित संयत्र चलाया
भव्य हॉल में,
नरम कुर्सियों को
अपने बोझ तले दबाया
गूँजी दूर-दूर तक
हुक्मरानों की आवाज़
करी बातें आम आदमी की
शुक्र करो तुम्हें समझा आदमी
तुम्हारे हकों की करी वकालत
आँसू बहाए जार-जार
प्रण किया कि लड़ मरेंगे
तुम्हें तुम्हारे हक दिलाकर
तालियों से काँप उठा सभागार
वाह-वाह, वाह-वाह
क्या बात कही सरकार
फिर बैठ लिये सभी
चल पड़ी लाल बत्तियों वाली कारें
तुम रह गए वहीं खड़े के खड़े
अब रहो चाहे सड़े
हमारा तो खेल खत्म
खाया-पिया सब भस्म
करते रहे अब चाहे जितनी बाँ-बाँ
तुम्हें अपने हकों की पड़ी है
हमारे तो कानों में रूई अड़ी है
आँखों पर हरियाली चढ़ी है
पीछे हटो, निकल जाने दो हुक्मरानों को
वरना बहुतों की लाशें यूँ ही पड़ी हैं
वरना बहुतों की लाशें यूँ ही सड़ी हैं।