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अतिथि / निलिम कुमार

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बिना कुछ पूछे ही
मेरे हृदय के दरवाज़े खोलकर वह अन्दर आ गया
आते ही उसने प्रेम से सजा मेरा गुलदस्ता तोड़ दिया

कहाँ का मनहूस इन्सान
सुबह ही आया था
खिलाया, पिलाया
शाम होने को आई मगर
अतिथि जाता ही नहीं
अब तो रात हो चुकी
मेरे ही बिस्तर पर गहरी नींद में
सोया है अतिथि

आधी रात को उसने
अपने हृदय से एक पोटली निकाली
और मेरे हाथ में रख दी
फिर अचानक जाने लगा ये कहते हुए
कि रात वाली गाड़ी से जाना है

उसके जाने के बाद मैंने पोटली खोलकर देखी
प्रेम से सजे मेरे गुलदस्ते की तरह
उसका हृदय भी खण्डित था
कहाँ का अतिथि था
रात वाली गाड़ी से जाने कहाँ चला गया ।

मूल असमिया से अनुवाद : पापोरी गोस्वामी