भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अतिरिक्त ज़िम्मेदारी / लीलाधर जगूड़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब-जब मैं मरता हूँ

बताया जाता है
न मेरे भीतर रहने वाला आत्मा मरता है न परमात्मा
तब फिर मैं कैसे मरता हूँ?

इसी से मैं समझा कि जब दण्डित होता हूँ
तो मेरे भीतर रहने वाला ईश्वर कतई दण्डित नहीं होता होगा

जितनी बार टूटता-फूटता हूँ
मेरे भीतर रहने वाला ईश्वर खंडित नहीं होता होगा

जब मेरी पोल खुलती है
तो भीतर रहने वाले ईश्वर की पोल नहीं खुलती होगी

मतलब कि इतना बेफ़िक्र और बेअसर होकर जिओ
कि ख़ुद ही अपना ईश्वर कहलाने लगूँ

अपनी पूरी ज़िम्मेदारी तो संभलती नहीं
फिर अपना ईश्वर होने की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी कैसे संभलेगी ?