अति निर्मल अति ही मधुर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
अति निर्मल, अति ही मधुर, दिव्य सुधा-रस-धाम।
भोग-कामना वासना राग रहित अभिराम॥-१॥
निज-सुख की इच्छा रहित, बिरत भोग-संसार।
मन-इंद्रिय के मिटत सब बिषय-भोग-यापार॥-२॥
अति विरक्त मन भोग तैं, मुक्ति-कामना-हीन।
चिा-बुद्धि सब ह्वै रहैं प्रियतम-प्रेम-बिलीन॥-३॥
रहत न रंचक हू तहाँ अघजुत कर्म विचार।
प्रगटत पावन प्रेम जहँ परम सुद्ध अबिकार॥-४॥
चिंता-भय-माया रहित, सहित सांतिमय त्याग।
अनु-अनु में छायौ रहत नित बिसुद्ध अनुराग॥-५॥
कामासक्ति-बिहीन सब पावन भाव सुकर्म।
केवल प्रियतम-सुख अमल एक प्रेम कौ धर्म॥-६॥
प्रभु-महव, सेवा परम, प्रभु के मन की बात।
जानि तवतः रहत प्रिय-सेवा रत दिन-रात॥-७॥
प्रियतम प्रभु कौ प्रेम ही हो जीवन कौ रूप।
प्रियतम के गुन बिसद तहँ प्रगटित रहैं अनूप॥-८॥
बढ़त, घटत, बदलत सतत, होत जगत कौ अंत।
बढ़त रहत पै त्यागमय पल-पल प्रेम अनंत॥-९॥
कलुषरहित, उज्ज्वल, अकल, अनुपम, परम, अमान।
प्रेमरूप हरि ही स्वयं, प्रेम स्वयं भगवान॥-१०॥
सोइ प्रेम नित मूर्त है, बन्यौ राधिका रूप।
बिलसत संतत स्याम सँग, प्रगटत सुधा अनूप॥-११॥