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अतीत-बोध / योगेन्द्र दत्त शर्मा

बर्फ-सी ठंडी हुई है रेत
पर, खरगोश अब तक
तिलमिलाता है!

रुई-जैसे बाल झुलसे
जेठ की तपती दुपहरी
पांव के नीचे अलावों की
कई सतरें इकहरी

डबडबाई हुई आंखों में
वही बस दृश्य अक्सर
झिलमिलाता है!

थरथराती दूब पर, वे
ओस के हंसते हुए कण
पी गये दुर्दान्त मरु-पथ पर
बिताये अनमने क्षण

गुदगुदाती चांदनी में
धूप का अहसास अब भी
चिलचिलाता है!