अतीत का कोहरा ...... / हरकीरत हकीर
ख़राशीदा<ref>खरोंच लगी</ref> शाम
कंदील रोशनी में
एहसास की धरती पर
उगाती है पौधे
कसैले बीजों के.....
वक़्त की इक आह
नहीं बन पायी कभी आकाश
ज़ब्त करती रही भावनाएं,
उत्तेजनाएं,अपना प्यार
और सौन्दर्य
इक तल्ख़<ref>कटु</ref>मुस्कान लिए.....
सपनो के चाँद पर
उड़ते रहे वहशी बादल
इक खुशनुमा रंगीन जी़स्त<ref>जिंदगी</ref>
बिनती है बीज दर्द के
मन के पानी में
तैर जाती हैं कई ...
खुरदरी, पथरीली,नुकीली,
बदहवास,हताश
परछाइयाँ.....
आँखें अतीत का कोहरा लिए
छाँटती हैं अंधेरे
स्मृतियों की आकृति में
गढ़ उठते हैं
कई लंबे संवाद
कटु उक्तियाँ.....
कठोर वर्जनाएं
आँखों की बौछार में
मांगती हैं जवाब
प्रश्न लगाते हैं ठहाके
कानून उड़ने लगता है
पन्नों से.....
आदिम युग की रिवायतें<ref>परम्पराएं</ref>
स्त्री यंत्रणाएं
समाज की नीतियाँ
विद्रूपताएँ
वर्तमान युग में सन्निहित
मेरे भीतर की स्त्री को
झकझोर देती हैं...
जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....