भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अतीत में पीछे लौटते हुए / शचीन्द्र आर्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी अपने चारों तरफ़ देख कर लगता है,
ऐसा वक़्त भी आएगा, जब इन दिनों को पलट कर रख दूंगा।

किसी ऐसी जगह पहुँचकर इन थके हुए, हार से गए दिनों में
अपनी अकड़ गयी पीठ पर उग आई असफलता की बेल को कुछ और कह पाऊँगा।
मैं भी इन अतिरेक भरे पलों में सूखते गले के भीतर संगीत की झंकारों से भर जाऊंगा।

इन सब हारी हुई लड़ाइयों के इतिहास को या तो एक दिन इतिहास से गायब कर दूंगा
या कह दूंगा, कभी हारा ही नहीं था।

पर अगले पल ख़याल आता,
जो संताप इन दिनों में भोगा है, जो दुख मवाद की तरह अंदर रिसा है
उनमें इन स्मृतियों, अनुभवों, आघातों से ख़ुद को कैसे अलग कर पाऊँगा?

कैसे इस ज़िंदगी के अलक्षित दिनों को गायब कर पाऊँगा?
इनमें भटकने और आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुए जो जीवन समझ आया,
उसे कैसे भूल पाऊँगा?

यही सब सोच ठहर जाता हूँ।

जो ऐसा कर पाते हैं,
वह बहुत अलग लोग होंगे। मुझमें यह साहस नहीं है।

मुझे नहीं बदलना इतिहास। अतीत में पीछे लौटते हुए मुझे कुछ भी नहीं बदलना।