अतीत संगीत / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
था भव-प्रात:काल, राग-रंजित था नभतल;
लोहितवसना ललित अंक था लोक समुज्ज्वल।
था अभिव्यक्ति-विकास प्रकृति-मानस में होता;
धीरे-धीरे तिमिर-पुंज था तामस खोता।
क्षितिज-अंक से निकल विभा के बहुविध गोले
केलि-निरत थे विविध कल्पना-कुसुमों को ले।
मंथर गति से पवन-प्रगति थी विकसित होती;
नव-जीवन का बीज नवल निधि में थी बोती।
सलिल-निलय संसार-लहरियों द्वारा चुंबित;
अरुण असित सित विपुल बिंब से था प्रतिबिंबित।
किसी अकल्पित दिशा मधय कर महा उजाला;
एक अलौकिकतम तिमिर था उगनेवाला।
इसी समय इस सलिल-राशि में महामनोहर;
एक अयुत-दल कमल हुआ भव-लोचन-गोचर।
उसकी परमिति किसी काल में गयी न मापी;
उसका था विस्तार अमित-जगतीतल-व्यापी।
विश्व-महान-विभूति-भूति थी उस पर विलसी;
जिसमें विविध विधान की विबुधता थी निवसी।
था जिस काल असंख्य लोक लीलामय बनता;
भव कमनीय वितान जिस समय विभु था तनता।
उसी समय संसारमयी नीरवता टूटी;
महाकंठ का गान हुए रव-जड़ता छूटी।
उससे हुआ दिगंत ध्वनित नभ-निधि लहराया;
सकल लोक के स्वर-समूह में जीवन आया।
गिरा हुई अवतीर्ण अनाहत नाद सुनाया;
कर की वीणा बजे विमोहित विश्व दिखाया।
लोकोत्तर झंकार अखिल लोकों में फैली;
विविध-कंठ-आधार बनी अवधारित शैली।
जो ज्वलंत बहु पिंड व्योमतल में थे फिरते;
जहाँ-तहाँ जो विविध रंग के धान थे घिरते।
महाउदधि में तरल तरंगें जो उठ पातीं;
सरिताएँ जो मंद-मंद बहती दिखलातीं।
जितने थे सर-सोत, रहे जो झरने झरते;
अपर तरु-लता आदि जो विविध रव थे करते।
उनमें भी थी बजी बीन ही झंकृत होती;
जिससे जागी जग-विकास की ममता सोती।
वेद-धवनि से धवनित हुआ भव-मंडल सारा;
लोक-लोक में बही मधुर-स्वर-सप्तक-धारा।
श्रवण-रसायन बनी, मुग्ध मानस में निवसी;
विविध-राग-रागिनी मधय बह बहुविधि विलसी।
उससे होकर मत्त गान वह शिव ने गाया;
जिसने सारे विबुध-वृंद को चकित बनाया।
उसकी मंजुल गूँज भूरि भुवनों में गूँजी;
बनी विश्व के विविध-धर्म-भावों की पूँजी।
उसके रस के सिंची लोक-भाषा-लतिकाएँ;
जिसमें विकसीं कलित-ललित-सुरभित कलिकाएँ।
वह सुकंठता उसे साधा नारद ने पाई;
जिसने सुरपुर-सदन-सदन में सुधा बहाई।
उससे भर-भर मिले छलकते मानस-प्याले;
जिनको पी गंधार्व बने मधु ता-मतवाले।
नाच उठीं अप्सरा, गान वह मोहक गाया;
जिसने सारे स्वर-समूह को सरस बनाया।
ले-ले उसका स्वाद किन्नरों ने रस पाया;
सुना मनोहर तान वाद्य बहु मंजु बजाया।
उसकी ही कमनीय कला मुरली ने पाई;
मनमोहन ने जिसे महा मधुमयी बनाई।
जब यह मुरली बड़े मधुर स्वर से बजती थी;
प्रकृति उस समय दिव्य साज द्वारा सजती थी।
पाहन होते द्रवित पादपावलि छवि पाती;
रस-धारा थी लता-बेलियों पर बह जाती।
खग-मृग बनते मत्त, नाचते मोर दिखाते;
विकसित होते फूल, फल मधुर रस टपकाते।
रुकता सलिल-प्रवाह, कलित कालिंदी होती;
वृंदावन की भूमि मलिनताएँ थी खोती।
होता हृदय-विकास, मुग्ध मानस बन जाते;
साधक-सिध्द पुनीत साधना के फल पाते।
साहस-हीन, मलीन जनों में जीवन आता;
पातक होता दूर, मुक्ति-पथ मानव पाता।
क्या न कभी फिर मधुर मुरलिका बज पावेगी;
क्या न कान में सरस सुधा फिर टपकावेगी।
जो जन-जन में भर विनोद-रस बरसावेगा;
वह अतीत संगीत क्या न गाया जावेगा।