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अतृप्त इच्छाएँ / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
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कल्पनाओं को जगाते,
उत्तेजित करते लहू
छू लेने को,
पा लेने को
वो सब अनुपलब्ध
जो दिखता हुआ भी
नहीं दिखता
हाथ आता हुआ भी
हाथ नहीं आता
सरसराते हुए क्षण
निकल जाते हैं हाथों से
आँखों से
हाय! हम ना हुए
एक ही नाव के सवार
रोज यही गीत गाते हैं
बुझे-बुझे दिन बिताते हैं
हर रात खाली जाल को
उनींदे-से उठाते हैं
नींद की लहरों पर
सो जाते हैं।