अथ कस्तूरिया मृग का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ कस्तूरिया मृग का अंग
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥
दादू घट कस्तूरी मृग के, भरमत फिरे उदास।
अंतरगति जाणे नहीं, तातैं सूँघे घास॥2॥
दादू सब घट में गोविन्द है, संग रहै हरि पास।
कस्तूरी मृग में बसे, सूँघत डोले घास॥3॥
दादू जीव न जाणे राम को, राम जीव के पास।
गुरु के शब्दों बाहिरा, ता तैं फिरे उदास॥4॥
दादू जा कारण जग ढूँढिया, सो तो घट ही माँहिं।
मैं तै पड़दा भरम का, ताथें जानत नाँहिं॥5॥
दादू दूर कहै ते दूर है, राम रह्या भरपूर।
नैनहुँ बिन सूझे नहीं, तातैं रवि कत दूर॥6॥
दादू ओडो हूँवो पाण सै, न लधाऊँ मंझ।
न जातांऊ पाण में, तांई क्या ऊपंध॥7॥
दादू केई दौड़े द्वारिका, केई काशी जाँहिं।
केई मथुरा को चले, साहिब घट ही माँहिं॥8॥
दादू सब घट माँहीं रम रह्या, विरला बूझे कोइ।
सोई बूझे राम को, जे राम सनेही होइ॥9॥
दादू जड़ मति जिव जाणे नहीं, परम स्वाद सुख जाय।
चेतन समझे स्वाद सुख, पीवे प्रेम अघाय॥10॥
जागत जे आनन्द करे, सो पावे सुख स्वाद।
सूते सुख ना पाइये, प्रेम गमाया बाद॥11॥
दादू जिसका साहिब जागणा, सेवग सदा सचेत।
सावधान सन्मुख रहै, गिर-गिर पड़े अचेत॥12॥
दादू सांई सावधान, हम ही भये अचेत।
प्राणी राख न जाण हीं, ता तै निर्फल खेत॥13॥
सगुणा-नगुणा कृतघ्नी
दादू गोविन्द के गुण बहुत है, कोई न जाणे जीव।
अपनी बूझे आप गति, जे कुछ कीया पीव॥14॥
॥इति कस्तूरिया का अंग सम्पूर्ण॥