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अथ दया निर्वैरता का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ दया निर्वैरता का अंग

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥
आपा मेटे हरि भजे, तन-मन तजे विकार।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार॥2॥
निर्वैरी निज आतमा, साधन का मत सार।
दादू दूजा राम बिन, वैरी मंझ विकार॥3॥
निर्वैरी सब जीव सौं, संत जन सोई।
दादू एकै आतमा, वैरी नहिं कोई॥4॥
सब हम देख्या शोध कर, दूजा नाँहीं आन।
सब घट एकै आतमां, क्या हिन्दू मुसलमान॥5॥
दादू नारि पुरुष का नाम धर, इहिं संशय भरम भुलान।
सब घट एकै आतमा, क्या हिन्दू मुसलमान॥6॥
दादू दोनां भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान॥7॥
दादू संशय आरसी, देखत दूजा होय।
भरम गया दुविधा मिटी, तब दूसर नाँहीं कोय॥8॥
किस सौं वैरी ह्वै रह्या, दूजा कोई नाँहिं।
जिसके अंग तैं ऊपजे, सोई है सब माँहिं॥9॥
सब घट एकै आतमा, जाणे सो नीका।
आपा पर में चीह्न ले, दर्शण है पिव का॥10॥
काहे को दुख दीजिए, घट-घट आतम राम।
दादू सब संतोषिये, यह साधु का काम॥11॥
काहे को दुख दीजिए, सांई है सब माँहिं।
दादू एकै आतमा, दूजा कोई नाँहिं॥12॥
साहिब जी की आतमा, दीजे सुख संतोष।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक॥13॥
दादू जब प्राण पिछाणे आपको, आतम सब भाई।
सिरजनहारा सबन का, तासैं ल्यौ लाई॥14॥
आत्मराम विचार कर, घट-घट देव दयाल।
दादू सब संतोषिये, सब जीवों प्रतिपाल॥15॥
दादू पूरण ब्रह्म विचार ले, दुती भाव कर दूर।
सब घट साहिब देखिए, राम रह्या भरपूर॥16॥
दादू मन्दिर काच का कर्मट सुनहां जाय।
दादू एक अनेक ह्वै, आप आपको खाय॥17॥
आतम भाई जीव सब, एक पेट परिवार।
दादू मूल विचारिए, तो दूजा कौण गँवार॥18॥

अदया हिंसा-वनस्पतियों में जीव भाव

दादू सूखा सहजैं कीजिए, नीला भाने नाँहिं।
काहे को दुख दीजिए, साहिब है सब माँहिं॥19॥

दया निर्वैरता

घट-घट के उणहार सब, प्राण परस ह्वै जाय।
दादू एक अनेक ह्वै, बरते नाना भाय॥20॥
आये एकंकार सब, सांई दिये पठाय।
दादू न्यारे नाम धर, भिन्न-भिन्न ह्वै जाय॥21॥
आये एकंकार सब, सांई दिये पठाइ।
आदि-अंत सब एक है, दादू सहज समाइ॥22॥
आतम देव आराधिये, विरोधिये नहिं कोय।
आराधे सुख पाइये, विरोधे दुःख होय॥23॥
ज्यों आपै देखे आप को, यों जे दूसर होय।
तो दादू दूसर नहीं, दुःख न पावे कोय॥24॥
दादू सम कर देखिए, कुंजर कीट समान।
दादू दुविधा दूर कर, तज आपा अभिमान॥25॥

अदया-हिंसा

दादू अर्श खुदाय का, अजरावर का थान।
दादू सो क्यों ढाहिये, साहिब का नीशान॥26॥
दादू आप चिणावे देहुरा, तिसका करहि जतन्न।
प्रत्यक्ष परमेश्वर किया, सो भाने जीव रतन्न॥27॥
मसीति सँवारी माणसौं, तिसको करैं सलाम।
ऐन आप पैदा किया, सो ढाहैं मुसलमान॥28॥
दादू जंगल माँहीं जीव जे, जग तैं रहै उदास।
भयभीत भयानक रात-दिन निश्चल नाँहीं बास॥29॥
वाचा बँधी जीव सब, भोजन पाणी घास।
आतम ज्ञान न ऊपजे, दादू करहि विनास॥30॥
काला मुँह कर करद का, दिल तैं दूरि निवार।
सब सूरत सुबहान की, मुल्ला मुग्ध न मार॥31॥
गला गुसे का काटिये, मियाँ मनी को मार।
पंचों बिस्मिल कीजिए, ये सब जीव उबार॥32॥
वैर विरोधे आतमा, दया नहीं दिन माँहिं।
दादू मूरति राम की, ताको मारण जाँहिं॥33॥

दया निर्वैरता

कुल आलम यके दीदम, अरवाहे इखलास।
बद अमल बदकार दुई, पाक यारां पास॥34॥
काल झाल तैं काढ कर, आतम अंग लगाय।
जीव दया यहु पालिये, दादू अमृत खाय॥35॥
दादू बुरा न बाँछे जीव का, सदा सजीवन सोय।
परलै विषय विकार सब, भाव भक्ति रत होय॥36॥

मत्सर-ईर्ष्या

ना को वैरी ना को मीत, दादू राम मिलण की चीत॥37॥

॥इति दया निर्वैरता का अंग सम्पूर्ण॥