अथ भेष का अंग
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥
पतिव्रत निष्काम
दादू बूडे ज्ञान सब, चतुराई जल जाय।
अंजन मंजन फूँक दे, रहै ल्यौ लाय॥2॥
राम बिना सब फीके लागैं, करणी कथा गियान।
सकल अविरथा कोटि कर, दादू योग धियान॥3॥
इन्द्रियार्थी भेष
ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक।
दादू भेष अनंत हैं, लाग रह्या सो एक॥4॥
कोरा कलश अवांह का, ऊपरि चित्र अनेक।
क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष॥5॥
बाहर दादू भेष बिन, भीतर वस्तु अगाध।
सो ले हिरदै राखिए, दादू सन्मुख साध॥6॥
दादू भांडा भर धर वस्तु सौं, ज्यों महँगे मोल बिकाय॥
खाली भांडा वस्तु बिन, कौडी बदले जाय॥7॥
दादू कनक कलश विष सैं भर्या, सो किस आवे काम।
सो धनि कूटा चाम का, जामें अमृत राम॥8॥
दादू देखे वस्तु को, वासण देखे नाँहिं।
दादू भीतर भर धरा, सो मेरे मन माँहिं॥9॥
दादू जे तूं समझे तो कहूँ, साँचा एक अलेख।
डाल पान तज मूल गह, क्या दिखलावे भेख॥10॥
दादू सब दिखलावैं आपको, नाना भेष बणाय।
जहँ आपा मेटण हरिभजन, तिहिं दिशि कोइ न जाय॥11॥
सो दशा कत हूँ रही, जिहिं दिशि पहुँचे साध।
मैं तै मूरख गह रहे, लोभ बडाई वाद॥12॥
दादू भेष बहुत संसार में, हरि जन विरला कोय।
हरि जन राता राम सौं, दादू एकै होय॥13॥
हीरे रीझे जौहरी, खल रीझे संसार।
स्वांग साधु बहु अंतरा, दादू सत्य विचार॥14॥
स्वांगि साधु बहुत अंतर, जेता धरणि-आकाश।
साधु राता राम सौं, स्वांगि जगत् का आश॥15॥
दादू स्वांगी सब संसार है, साधु विरला कोय।
जैसे चंदन बावना, वन-वन कहीं न होय॥16॥
दादू स्वांगी सब संसार है, साधु कोई एक।
हीरा दूर दिशंतरा, कंकर और अनेक॥17॥
स्वांगी सब संसार है, साधू शोधि सुजाण।
परस परदेशों भया, दादू बहत पषाण॥18॥
स्वांगी सब संसार है, साधु समुद्रां पार।
अनल पंखि कहँ पाइए, पंखी कोटि हजार॥19॥
दादू चंदन वन नहीं, शूरन के दल नाँहिं।
सकल खानि हीरा नहीं, ल्यों साधु जग माँहिं॥20॥
जे सांई का ह्वै रहै, सांई तिसका होय।
दादू दूजी बात सब, भेष न पावे कोय॥21॥
स्वांग सगाई कुछ नहीं, राम सगाई साँच।
दादू नाता नाम का, दूजे अंग न राच॥22॥
दादू एकै आतमा, साहिब है सब माँहिं।
साहिब के नाते मिले, भेष पंथ के नाँहिं॥23॥
दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम।
अंतर मेरे एक है, अह निशि उसका नाम॥24॥
अमिट पाप प्रचंड
दादू भकत भेष धर मिथ्या बोले, निन्दा पर अपवाद।
साँचे को झूठा कहै, लागे बहु अपराध॥25॥
दादू कबहूँ कोई जनि मिले, भक्त भेष सौं जाय।
जीव जन्म का नाश ह्वै, कहै अमृत विष खाय॥26॥
चित्त कपटी
दादू पहुँचे पूत बटाऊ होइ कर, नट ज्यों काछा भेख।
खबर न पाई खोज की, हम को मिल्या अलेख॥27॥
दादू माया कारण मूँड मुँडाया, यहु तो योग न होइ।
पारब्रह्म सौं परिचय नाहीं, कपट न सीझे कोइ॥28॥
अन्य लग्न व्यभिचार
पीव न पीवे बावरी, रचि-रचि करे शृंगार।
दादू फिर-फिर जगत् सौं, करेगी व्यभिचार॥29॥
प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे शृंगार।
दादू आतम रत नहीं, क्यों माने भरतार॥30॥
दादू जग दिखलावे बावरी, षोडश करे शृंगार।
तहँ न सँवारे आपको, जहँ भीतर भरतार॥31॥
इन्द्रियार्थी भेष
सुध बुध जीव धिजाइ कर, माला संकल बाहि।
दादू माया ज्ञान सौं, स्वामी बैठा खाइ॥32॥
जोगी जंगम सेवड़े, बौद्ध संन्यासी शेख।
षट् दर्शन दादू राम बिन, सबै कपट के भेख॥33॥
दादू शेख मुशायख औलिया, पैगम्बर सब पीर।
दर्शन सौं परसन नहीं, अजहूँ बेली तीर॥34॥
नाना भेष बनाइ कर, आपा देख दिखाय।
दादू दूजा दूर कर, साहिब सौं ल्यौ लाय॥35॥
दादू देखा देखी लोक सब, केते आवैं जाँहिं।
राम सनेही ना मिलैं, जे निज देखै माँहिं॥36॥
दादू सब देखै अस्थूल को, यहु ऐसा आकार।
सूक्ष्म सहज न सुझई, निराकार निर्धार॥37॥
परीक्षक-अपरीक्षक
दादू बाहर का सब देखिए, भीतर लख्या न जाइ।
बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ॥38॥
दादू यह परिख सराफी ऊपली, भीतर की यहु नाँहिं।
अंतर की जाणे नहीं, तातैं खोटा खाँहिं॥39॥
दादू झूठा राता झूठ सौं, साँचा राता साँच।
एता अंध न जानई, कहँ कंचन कहँ काँच॥40॥
इन्द्रियार्थी मेष
दादू सचु बिन सांइ न मिले, भावै भेष बनाइ।
भावै करवत ऊर्ध्व मुख, भावै तीरथ जाइ॥41॥
दादू साँचा हरि का नाम है, सो ले हिरदै राखि।
पाखंड प्रपंच दूर कर, सब साधों की साखि॥42॥
आपा निर्द्वेष
हिरदै की हरि लेयगा, अंतर-जामी राय।
साँच पियारा रामा को, कोटिक कर दिखलाय॥43॥
दादू मुख की ना गहै, हिरदै की हरि लेय।
अंतर सूधा एक सौं, तो बोल्याँ दोष न देय॥44॥
इन्द्रियार्थी मेष
सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजे आन।
मन गह राखे एक सैं, दादू साधु सुजान॥45॥
आत्मार्थी मेष
शब्द सुई सुरति धागा, काया कंथा लाय।
दादू योगी जुग-जुग पहरे, कबहूँ फाट न जाय॥46॥
ज्ञान गुरु की गूदड़ी, शब्द गुरु का भेख।
अतीत हमारी आतमा, दादू पंथ अलेख॥47॥
इश्क अजब अबदाल है, दर्दवंद दरवेश।
दादू सिक्का सब्र है, अकल पीर उपदेश॥48॥
॥इति भेष का अंग सम्पूर्ण॥