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अथ माया का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ माया का अंग

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥
साहिब है पर हम नहीं, सब जग आवे जाय।
दादू स्वप्ना देखिए, जागत गया बिलाय॥2॥
दादू माया का सुख पंच दिन, गव्यों कहा गँवार।
स्वप्ने पायो राजधन, जात न लागे वार॥3॥
दादू स्वप्ने सूता प्राणियाँ, कीये भोग विलास।
जागत झूठा ह्वै गया, ताकी कैसी आस॥4॥
यों माया का सुख मन करै, शय्या सुन्दरि पास।
अन्त काल आया गया, दादू होउ उदास॥5॥
जे नाँहीं सो देखिए, सूता स्वप्ने माँहि।
दादू झूठा ह्वै गया, जागे तो कुछ नाँहि॥6॥
यह सब माया मृग जल, झूठा झिलमिल होइ।
दादू चिलका देखकर, सत कर जाना सोइ॥7॥
झूठा झिलमिल मृग जल, पाणी कर लीया।
दादू जग प्यासा मरे, पशु प्राणी पीया॥8॥

पति पहिचान

छलावा छल जायगा, स्वप्ना बाजी सोइ।
दादू देख न भूलिए, यह निज रूप न होइ॥9॥

माया

स्वप्ने सब कुछ देखिए, जागे तो कुछ नाँहिं।
ऐसा यहु संसार है, समझ देख मन माँहिं॥10॥
दादू ज्यों कुछ स्वप्ने देखिए, तैसा यहु संसार।
ऐसा आपा जाणिए, फूल्यो कहा गँवार॥11॥
दादू जतन-जतन कर राखिए, दृढ़ गह आतम मूल।
दूजा दृष्टि न देखिए, सब ही सेमल फूल॥12॥
दादू नैनहुँ भर नहिं देखिए, सब माया का रूप।
तहँ ले नैना राखिए, जहँ है तत्त्व अनूप॥13॥
हस्ती, हय, वर, धन देखकर, फूल्यौ अंग न माइ।
भेरि दमामा एक दिन, सब ही छोड़े जाइ॥14॥
दादू माया बिहड़े देखतां, काया संग न जाय।
कृत्रिम बिहड़े बावरे, अजरावर ल्यौ लाय॥15॥
दादू माया का बल देखकर, आया अति अहंकार।
अंध भया सूझे नहीं, का करि है सिरजनहार॥16॥

विरक्तता

मन मनसा माया रती, पंच तत्त्व परकास।
चौदह तीनों लोक सब, दादू होइ उदास॥17॥
माया देखे मन खुशी, हिरदै होइ विगास।
दादू यह गति जीव की, अंत न पूरो आस॥18॥
मन की मूठि न मांडिये, माया के नीशाण।
पीछे ही पछताहुगे, दादू खोटे बाण॥19॥

शिश्न-स्वाद

कुछ खातां कुछ खेलतां, कुछ सोवत दिन जाय।
कुछ विषया रस विलसतां, दादू गये विलाय॥20॥

संगति-कुसंगति

माखण मन पाहन भया, माया रस पीया।
पाहण मन माखन भया, राम रस लीया॥21॥
दादू माया सैं मन बीगड्या, ज्यों कांजी कर दुद्ध।
है कोई संसार में, मन कर देवे शुद्ध॥22॥
गन्दी सौं गंदा भया, यों गंदा सब कोइ।
दादू लागे खूब सौं, तो खूब सरीखा होइ॥23॥
दादू माया सौं मन रत भया, विषय रस माता।
दादू साचा छाड़कर, झूठे रंग राता॥24॥
माया के संग जे गये, ते बहुर न आये।
दादू माया डाकिणी, इन केते खाये॥25॥
दादू माया मोट विकार की, कोइ न सकई डार।
बह-बह मूये बापुरे, गये बहुत पच हार॥26॥
दादू रूप राग गुण अणसरे, जहँ माया तहँ जाय।
विद्या अक्षर पंडिता, तहाँ रहे घर छाय॥27॥
साधु न कोई पग भरे, कबहूँ राज दुवार।
दादू उलटा आप में, बैठा ब्रह्म विचार॥28॥

आशय-विश्राम

दादू अपणे-अपणे घर गये, आपा अंग विचार।
सह कामी माया मिले, निष्कामी ब्रह्म संभार॥29॥

माया

दादू माया मगन जु हो रहे, हम से जीव अपार।
माया माँहीं ले रही, डूबे काली धार॥30॥

शिश्न-स्वाद

दादू विषय के कारणें रूप राते रहैं, नैन नापाक यों कीन्ह भाई।
बदी की बात सुणत सारे दिन, श्रवण नापाक यों कीन्ह जाई॥31॥
स्वाद के कारणे लुब्धि लागी रहे, जिह्वा नापाक यों कीन्ह खाई।
भोग के कारण भूख लागी रहे, अंग नापाक यों कीन्ह लाई॥32॥

माया

दादू नगरी चैन तब, जब इक राजी होय।
दो राजी दुख द्वन्द्व में, सुखी न बैसे कोय॥33॥
इक राजी आनन्द है, नगरी निश्चल बास।
राजा परजा सुखि बसैं, दादू ज्योति प्रकास॥34॥

शिश्न-स्वाद

जैसे कुंजर काम वश, आप बँधाणा आय।
ऐसे दादू हम भये, क्यों कर निकस्या जाय॥34॥
जैसे मर्कट जीभ रस, आप बँधाणा अंध।
ऐसे दादू हम भये, क्यों कर छूटे फंध॥36॥
ज्यों सूवा सुख कारणे, बध्या मूरख माँहि।
ऐसे दादू हम भये, क्यों ही निकसें नाँहि॥37॥
जैसे अंध अज्ञान गृह, बंध्या मूरख स्वाद।
ऐसे दादू हम भये, जन्म गमाया बाद॥38॥
दादू बूड रह्या रे बापुरे, माया गृह के कूप।
मोह्या कनक रु कामिनी, नाना विधि के रूप॥39॥

शिश्न-स्वाद

दादू स्वाद लाग संसार सब, देखत परलय जाय।
इन्द्री स्वारथ साच तजि, सबै बँधाणे आय॥40॥
विष सुख माँही रम रहे, माया हित चित लाय।
सोइ संत जन ऊबरे, स्वाद छाड गुण गाय॥41॥

आसक्तता मोह

दादू झूठी काया झूठा घर, झूठा यहु परिवार।
झूठी माया देखकर, फूल्यो कहा गँवार॥42॥

विरक्तता

दादू झूठा संसार, झूठा परिवार, झूठा घर-बार,
झूठा नर-नारि तहाँ मन माने।
झूठा कुल जात, झूठा पितु-मात, झूठा बन्धु-भ्रात,
झूठा तन गात, सत्य कर जाने॥
झूठा सब अंध, झूठा सब फंध, झूठा सब अंध,
झूठा जाचन्ध, कहा मग छाने।
दादू भाग झूठ सब त्याग, जाग रे जाग देख दिवाने॥43॥

आसक्तता

दादू झूठे तन के कारणे, कीये बहुत विकार।
गृह दारा धन संपदा, पूत कुटुम्ब परिवार॥44॥
ता कारण हति आतमा, झूठ कपट अहंकार।
सो माटी मिल जायगा, विसर्या सिरजनहार॥45॥

विरक्तता

दादू जन्म गया सब देखतां, झूठे के संग लाग।
साचे प्रीतम को मिले, भाग सके तो भाग॥46॥
दादू गंत गृहं गतं धनं, गतं दारा सुत यौवनं।
गतं माता, गतं पिता, गतं बन्धु सज्जनं॥
गतं आपा, गतं परा, गतं संसार गतं रंजनं।
भजसि भजसि रे मन, परब्रह्म निरंजनं॥47॥

आसक्तता-मोह

जीवों मांहीं जिब रहै, ऐसा माया मोह।
सांई सूधा सब गया, दादू नहिं अंदोह॥48॥

विरक्तता

माया मगहर खेत खर, सद्गति कदे न होय।
जे बंचे ते देवता, राम सरीखे सोय॥ं49॥
कालर खेत न नीपजे, जे बाहे सौ बार।
दादू हाना बीज का, क्यों पच मरे गँवार॥50॥
दादू इस संसार सौं, निमष न कीजे नेह।
जामन मरण आवटणा, छिन-छिन दाझे देह॥51॥

आसक्तता-मोह

दादू मोह संसार का, विहरे तन-मन प्राण।
दादू छूटे ज्ञान क, को साधू-संत सुजाण॥52॥
मन हस्ती माया हस्तिनी, सघन वन संसार।
ता में निर्भय ह्वै रह्या, दादू मुग्ध गँवार॥53॥

काम

दादू काम कठिन घट चोर है, घर फोड़े दिन-रात।
सोवत साह न जागही, तत्त्व वस्तु ले जात॥54॥
काम कठिन घट चोर है, मूसे भरे भंडार।
सोवत ही ले जायगा, चेतन पहरे चार॥55॥
ज्यों घुण लागै काठ को, लोहे लागै काट।
काम किया घट जाजरा, दादू बारह बाट॥56॥
राहु गिले ज्यों चन्द को, गहण गिले ज्यों सूर।
कर्म गिले यों जीव को, नख-शिख लागे पूर॥57॥
दादू चन्द गिले जब राहु को, गहण गिले जब सूर।
जीव गिले जब कर्म को, राम रह्या भरपूर॥58॥
कर्म कुहाड़ा अंग वन, काटत बारंबार।
अपने हाथों आपको, काटत है संसार॥59॥

स्वकीय शत्रु मित्रता

आपै मारे आप को, यह जीव बिचारा।
साहिब राखणहार है, सो हितू हमारा॥60॥
आपै मारे आपको, आप आपको खाय।
आपै अपणा काल है, दादू कहे समझाय॥61॥

करतूति-कर्म

मरबे की सब ऊपजे, जीबे की कुछ नाँहिं।
जीबे की जाणे नहीं, मरबे की मन माँहिं॥62॥
बंध्या बहुत विकार सौं, सर्व पाप का मूल।
ढाहै सब आकार कूँ, दादू यहु अस्थल॥63॥

काम

दादू यहु तो दोजख देखिए, काम क्रोध अहंकार।
रात दिवस जरबो करे, आपा अग्नि विकार॥64॥
विषय हलाहल खाइ कर, सब जग मर-मर जाय।
दादू मोहरा नाम ले हृदय राखि ल्यौ लाय॥65॥
जेती विषया विलसिये, तेती हत्या होय।
प्रत्यक्ष मांणष मारिये, सकल शिरोमणि सोय॥66॥
विषया कारस मद भया, नर-नारी का माँस।
माया माते मद पिया, किया जन्म का नाश॥67॥
तहँ जन तेरा रामजी, स्वप्ने कदे न जाय॥68॥
खाडा बूजी भक्ति है, लोहरवाड़ा माँहिं।
परगट पेडाइत बसै, तहाँ संत काहे को जाँहि॥69॥

माया

साँपणि एक सब जीव को, आगे-पीछे खाय।
दादू कहि उपकार कर, कोई जन ऊबर जाय॥70॥
दादू खाये साँपणी, क्यों कर जीवें लोग।
राम मन्त्र जन गारुड़ी, जीवें इहिं संजोग॥71॥
दादू माया कारण जग मरे, पिव के कारण कोय।
देखो ज्यों जग पर जले, निमष न न्यारा होय॥72॥

जाया माया मोहनी

काल कनक अरु कामिनी, परिहर इनका संग।
दादू सब जग जल मुवा, ज्यों दीपक ज्योति पतंग॥73॥
दादू जहाँ कनक अरु कामिनी, तहँ जीव पतंगे जाँहि।
अग्नि अनंत सूझे नहीं, जल-जल मूये माँहिं॥74॥

चित्त कपटी

घट माँहीं माया घणी, बाहर त्यागी होय।
फाटी कंथा पहर कर, चिह्न करे सब कोय॥75॥
काया राखे बंद दे, मन दह दिशि खेलै।
दादू कनक अरु कामिनी, माया नहिं मेलै॥
दादू मनसौं मीठी, मुख सौं खारी।
माया त्यागी कहै बजारी॥76॥

माया

दादू माया मंदिर मीच का, ता में पैठा धाइ।
अंध भया सूझे नहीं, साधु कहें समझाइ॥77॥

विरक्तता

दादू केते जल मुये, इस योगी की आग।
दादू दूरै बंचिये, योगी के संग लाग॥78॥

माया

ज्यों जल मैंणी माछली, तैसा यहु संसार।
माया माते जीव सब, दादू मरत न बार॥79॥
दादू माया फोड़े नैन दो, राम न सूझे काल।
साधु पुकारे मेर चढ़, देख अग्नि की झाल॥80॥

जाया माया मोहनी

बिना भुवंगम हम डसे, बिन जल डूबे जाय।
बिन ही पावक ज्यों जले, दादू कुछ न बसाय॥81॥

विषय अतृप्ति

दादू अमृत रूपी आप है, और सबै विष झाल।
राखणहारा राम है, दादू दूजा काल॥82॥

जग भुलावनि

बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होय।
माया पट पड़दा दिया, तातैं लखे न कोय॥83॥
दादू बाहे देखतां, ढिग ही ढोरी लाय।
पिव-पिव करते सब गये, आपा दे न दिखाय॥84॥
मैं चाहूँ सो ना मिले, साहिब का दीदार।
दादू बाजी बहुत है, नाना रंग अपार॥85॥
हम चाहैं सो ना मिले, अरु बहुतेरा आहि।
दादू मन माने नहीं, केता आवे-जाहि॥86॥
बाजी मोहे जीव सब, हमको भुरकी बाहि।
दादू कैसी कर गया, आपणा रह्या छिपाइ॥87॥
दादू सांई सत्य है, दूजा भरम विकार।
नाम निरंजन निर्मला, दूजा घोर अंधार॥88॥
दादू सो धन लीजिए, जे तुम सेती होइ।
माया बाँधे कई मुये, पूरा पड्या न कोइ॥89॥
दादू कहै-जे हम छाड़े हाथ तैं, सो तुम लिया पसार।
जे हम लेवें प्रीति सौं, सो तुम दीया डार॥90॥

आसक्ति मोह

दादू हीरा पगसौं ठेलि कर, कंकर को कर लीन्ह।
परब्रह्म को छाड़ कर, जीवन सौं हित कीन्ह॥91॥
दादू सब को बणिजे खार खल, हीरा कोइ न लेय।
हीरा लेगा जौहरी, जो माँगे सो देय॥ं92॥

माया

दड़ी दोट ज्यों मारिये, तिहूँ लोक में फेरि।
धुर पहुँचे संतोष है, दादू चढ़बा मेरि॥93॥
अनल पंखि आकाश को, माया मेर उलंघ।
दादू उलटे पंथ चढ, जाइ विलंबे अंग॥94॥
दादू माया आगें जीव सब, ठाढे रहे कर जोड़।
जिन सिरजे जल बूँद, सौं, तासौं बैठे तोड़॥95॥
दादू सुर नर मुनिवर वश किये, ब्रह्मा विष्णु महेश।
सकल लोक के शिर खड़ी, साधू के पग हेठ॥96॥
दादू माया चेरि संत की, दासी उस दरबार।
ठकुराणी सब जगत् की, तीनों लोक मंझार॥97॥
दादू माया दासी संत की, शाकत की शिरताज।
शाकत सेती भांडनी, संतों सेती लाज॥98॥
चार पदार्थ मुक्ति बापुरी, अठ सिधि नौ निधि चेरी।
माया दासी ताके आगे, जहँ भक्ति निरंजन तेरी।
दादू कहै-ज्यों आवे त्यों जाइ बिचारी।
विलसी वितड़ी माथे मारी॥99॥
दादू माया सब गहले किये, चौरासी लख जीव।
ताका चेरी क्या करे, जे रंग राते पीव॥100॥

विरक्तता

दादू माया वैरिणि जीव की, जनि को लावे प्रीति।
माया देखे नरक कर, यहु संतन की रीति॥101॥

माया

माया मति चकचाल कर, चंचल कीये जीव।
माया माते पद पिया, दादू बिसर्या पीव॥102॥

अन्य लग्न व्यभिचार

जणे-जणे की राम की, घर-घर की नारी।
पतिव्रता नहिं पीव की, सो माथे मारी॥103॥
जण-जण के उठ पीछे लागे, घर-घर भरमत डोले।
ताथैं दादू खाइ तमाचे, मांदल दुहु मुख बोले॥104॥

विषय विरक्तता

जे नर कामिनि परिहरै, ते छूटे गर्भ वास।
दादू ऊँघे मुख नहीं, रहै निरंजन पास॥105॥
रोक न राखे, झूठ न भाखे, दादू खरचे खाय।
नदी पूर प्रवाह ज्यों, माया आवे-जाय॥106॥
सदिका सिरजनहार का, केता आवे-जाय।
दादू धन संचय नहीं, बैठ खुलावे खाय॥107॥

माया

योगिणि ह्व योगी गहे, सोफणि ह्वै कर शेख।
भक्तणि ह्वै भक्ता गहे, कर-कर नाना भेख॥108॥
बुद्धि विवेक बल हारणी, त्रय तन ताप उपावनी।
अंग अग्नि प्रजालिनी, जीव घर-बार नचावनी॥109॥
नाना विधि के रूप धर, सब बाँचे भामिनी।
जब बिटंब परलै किया, हरिनाम भुलावनी॥110॥
बाजीगर की पूतली, ज्यों मर्कट मोह्या।
दादू माया राम की, सब जगत् बिगोया॥111॥

शिश्न-स्वाद

मोरा मेरी देखकर, नाचे पंख पसार।
यों दादू घर-आँगणे, हम नाचे के बार॥112॥

माया

जेहि घट ब्रह्म न प्रकटे तहँ माया मंगल गाय।
दादू जागे ज्योति जब, तब माया भरम बिलाय॥113॥

पति पहिचान

दादू ज्योति चमके तिरवरे, दीपक देखे लोइ।
चंद सूर का चांदणा, पगार छलावा होइ॥114॥

माया

दादू दीपक देह का, माया परकट होइ।
चौरासी लख पंखिया, तहाँ परें सब कोइ॥115॥

पुरुष प्रकाशी

यहु घट दीपक साध का, ब्रह्म ज्योति परकास।
दादू पंखी संतजन, तहाँ परैं निज दास॥116॥

विषय विरक्तता (पुरुष-नारी सम्बन्ध)

जाणैं-बूझैं जीव सब, त्रिया पुरुष का अंग।
आपा पर भूला नहीं, दादू कैसा संग॥117॥
माया के घट साजि द्वै, त्रिया पुरुष घर नाँव।
दोनों सुन्दर खेलैं दादू, राखि लेहु बलि जाँव॥118॥
बहिन बीर सब देखिए, नारी अरु भरतार।
परमेश्वर के पेट के, दादू सब परिवार॥119॥
पर घर परिहर आपणी, सब एके उणहार।
पशु प्राणी समझे नहीं, दादू मुग्ध गँवार॥120॥
पुरुष पलट बेटा भया, नारी माता होइ।
दादू को समझे नहीं, बड़ा अचंभा मोहि॥121॥
माता नारी पुरुष की, पुरुष नारि का पूत।
दादू ज्ञान विचार कर, छाड गये अवधूत॥122॥

विषय अतृप्ति

ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, सुर नर उरझाया।
विष का अमृत नाम धर, सब किन्हूँ खाया॥123॥

अध्यात्म

दादू माया का जल पीवतां, व्याधी होइ विकार।
सेझे का जल पीवतां, प्राण सुखी सुध सार॥124॥

विषय अतृप्ति

जिव गहिला जिव बावला, जीव दिवाना होय।
दादू अमृत छाडकर, विष पीवे सब कोय॥125॥

माया

माया मैली गुण मई, धर-धर उज्वल नाम।
दादू मोहे सबन को, सुर नर सब ही ठाम॥126॥

विषय अतृप्ति

विष का अमृत नाम धर, सब कोई खावे।
दादू खारा ना कहै, यहु अचरज आवे॥127॥
दादू जे विष जारे खाइ कर, जनि मुख में मेलै।
आदि अंत परले गये, जे विष सौं खेलै॥128॥
जिन विष खाया ते मुये, क्या मेरा क्या तेरा।
आगि पराई आपणी, सब करे निबेरा॥129॥
दादू कहै-जिन विष पीवे बावरे, दिन-दिन बाढे रोग।
देखत ही मर जायगा, तज विषया रस भोग॥130॥
अपणा-पराया खाइ विष, देखत ही मर जाय।
दादू को जीवे नहीं, इहिं भोरे जनि खाय॥131॥

माया

ब्रह्म सरीखा होइ कर, माया सौं खेलै।
दादू दिन-दिन देखतां, अपने गुण मेलै॥132॥
माया मारे लात सौं, हरि को घाले हाथ।
संग तजे सब झूठ का, गहे साच का साथ॥133॥
दादू घर के मारे वन के मारे, मारे स्वर्ग पयाल।
सूक्ष्म मोटा गूँथ कर, मांड्या माया जाल॥134॥

विषय अतृप्ति

ऊभा सारं बैठ विचारं, संभारं जागत सूता।
तीन लोक तत जाल विडारण, तहाँ जाइगा पूता॥135॥
मुये सरीखे ह्वै रहै, जीवण की क्या आस।
दादू राम विसार कर, बाँछे भोग विलास॥136॥

कृत्रिम कर्ता

माया रूपी राम को, सब कोई ध्यावे।
अलख आदि अनादि है, सो दादू गावे॥137॥
दादू ब्रह्मा का वेद, विष्णु की मूरति, पूजे सब संसारा।
महादेव की सेवा लागे, कहाँ है सिरजनहारा॥138॥
माया का ठाकुर किया, माया की महिमाय।
ऐसे देव अनन्त कर, सब जग पूजण जाय॥139॥
दादू माया बैठी राम ह्वै, कहै मैं ही मोहन राय।
ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, जोनी आवे-जाय॥140॥
माया बैठी राम ह्वै, ताको लखे न कोइ।
सब जग मानै सत्य कर, बड़ा अचम्भा मोहि॥141॥
अंजन किया निरंजना, गुण निर्गुण जाने।
धर्या दिखावे अधर कर, कैसे मन माने॥142॥
निरंजन की बात कह, आवे अंजन माँहिं।
दादू मन माने नहीं, सर्ग रसातल जाँहिं॥143॥
कामधेनु के पटंतरे, करे काठ की गाय।
दादू दूध दूझे नहीं, मूरख देहु बहाय॥144॥
चिन्तामणि कंकर किया, माँगे कछु न देय।
दादू कंकर डारदे, चिन्तामणि कर लेय॥145॥
पारस किया पाषाण का, कंचन कदे न होय।
दादू आतम राम बिन, भूल प्उ्या सब कोय॥146॥
सूरज फटिक पषाण का, तांसौं तिमर न जाय।
साचा सूरज परगटे, दादू तिमर नसाय॥147॥
मूर्ति घड़ी पाषाण की, कीया सिरजनहार।
दादू साच सूझे नहीं, यों डूबा संसार॥148॥
पुरुष विदेश कामिणि किया, उस ही के उणिहार।
कारज को सीझे नहीं, दादू माथे मार॥149॥
कागद का माणष किया, छत्रपती शिर मौर।
राज-पाट साधे नहीं, दादू परिहर और॥150॥
सकल भुवन भाने घड़े, चतुर चलावणहार।
दादू सो सूझे नहीं, जिसका वार न पार॥151॥

कर्ता साक्षी भूत

दादू पहली आप उपाइ कर, न्यारा पद निर्वाण।
ब्रह्मा विष्णु महेश मिल, बाँध्या सकल बँधाण॥152॥

कृत्रिम कर्ता

नाम नीति-अनीति सब, पहली बाँधे बंद।
पशू न जाणे पारधी, दादू रोपे फंद॥153॥
दादू बाँधे वेद विधि, भरम कर्म उरझाय।
मर्यादा माँही रहैं, सुमिरण किया न जाय॥154॥

माया (नारी दोष निरूपण)

दादू माया मीठी बोलणी, नइ-नइ लागे पाय।
दादू पैसे पेट मैं, काढ कलेजा खाय॥155॥
नारी नागिणि जे डसे, ते नर मुये निदान।
दादू को जीवे नहीं, पूछो सबै सयान॥156॥
नारी नागिणि एक-सी, बाघणि बड़ी बलाय।
दादू जे नर रत भये, तिनका सर्वस खाय॥157॥
नारी नैन न देखिए, मुख सौं नाम न लेय।
कानों कामिणि जनि सुणे, यहु मन जाण न देय॥158॥
सुन्दरि खाये साँपिणि, कैते इहिं कलि माँहि।
आदि-अंत इन सब डसे, दादू चेते नाँहिं॥159॥
दादू पैसे पेट में, नारी नागिणि होय।
दादू प्राणी सब डसे, काढ सके ना कोय॥160॥
माया साँपिणि सब डसे, कनक कामिनी होइ।
ब्रह्मा विष्णु महेश लों, दादू बचे न कोइ॥161॥
माया मारे जीव सब, खंड-खंड कर खाय।
दादू घट का नाश कर, रोवे जग पतियाय॥162॥
बाबा-बाबा कह गिले, भाई कह-कह खाय।
पूत-पूत कह पी गई, पुरुषा जिन पतियाय॥163॥
ब्रह्मा विष्णु महेश की, नारी माता होय।
दादू खाये जीवसब, जिन रु पतीजे कोय॥164॥
माया बहु रूपी नटणी नाचे, सुर नर मुनि को मोहै।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर बाहे, दादू बपुरा को है॥165॥
माया फाँसी हाथ ले, बैठी गोप छिपाइ।
जे कोइ धीजे प्राणियाँ, ताही के गल बाहि॥166॥
पुरुषा फाँसी हाथ कर, कामनि के गल बाहि।
कामनि कटारी कर गहै, मार पुरुष को खाइ॥167॥
नारी वैरण पुरुष की, पुरुषा वैरी नारि।
अंत काल दोनों मुये, दादू देखि विचारि॥168॥
नारि पुरुष को ले मुई, पुरुषा नारी साथ।
दादू दोनों पच मुये, कछू न आया हाथ॥169॥
भँवरा लुब्धी वास का, कमल बँधाना आय।
दिन दश माँही देखतां, दोनों गये विलाय॥170॥
नारी पीवे पुरुष को, पुरुष नारी को खाइ।
दादू गुरु के ज्ञान बिन, दोनों गये विलाइ॥171॥

॥इति माया का अंग सम्पूर्ण॥