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अथ राग आसावरी / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ राग आसावरी

(गायन समय प्रातः 6 से 9)

213. उत्तम स्मरा ब्रह्म ताल

तूं हीं मेरे रसना, तूं ही मेरे बैना,
तूं हीं मेरे श्रावणा, तूं हीं मेरे नैना॥टेक॥
तूं हीं मेरे आतम कमल मंझारी,
तूं हीं मेरी मनसा तुम पर वारी॥1॥
तूं हीं मेरे मन हीं, तूं हीं मेरे श्वासा,
तूं हीं मेरे सुरतैं, प्राण निवासा॥2॥
तूं हीं मेरे नख-शिख सकल शरीरा,
तूं हीं मेरे जियरे ज्यों जल नीरा॥3॥
तुम बिन मेरे और कोई नाँहीं,
तूं हीं मेरी जीवन दादू माँहीं॥4॥


214. अहनन्य शरण। झूमरा

तुम्हारे नाम लाग हरि जीवण मेरा, मेरे साधन सकल नाम निज तेरा॥टेक॥
दान-पुन्य तप तीरथ मेरे, केवल नाम तुम्हारा।
ये सब मेरे सेवा-पूजा, ऐसा बरत हमारा॥1॥
ये सब मेरे वेद पुराणा, शुचि संयम है सोई।
ज्ञान ध्यान ये ही सब मेरे, और न दूजा कोई॥2॥
काम क्रोध काया वश करणाँ, ये सब मेरे नामा।
मुकता गुप्ता परकट कहिए, मेरे केवल रामा॥3॥
तारण तिरण नाम निज तेरा, तुम हीं एक अधारा।
दादू अंग एक रस लागा, नाम गहै भव पारा॥4॥

215. चतुष्ताल

हरि केवल एक अधारा, सोई तारण तिरण हमारा॥टेक॥
ना मैं पंडित पढ़ गुण जाणूँ, ना कुछ ज्ञान विचारा।
ना मैं आगम ज्योतिष जाणूँ, ना मुझ रूप शृंगारा॥1॥
ना तप मेरे इन्द्री निग्रह, ना कुछ तीरथ फिरणा।
देवल पूजा मेरे नाँहीं, ध्यान कछू नहिं धरणा॥2॥
जोग जुगति कछू नहिं मेरे, ना मैं साधन जानूँ।
औषधि मूली मेरे नाँहीं, ना मैं देश बखानूँ॥3॥
मैं तो और कुछ नहिं जाणूँ, कहो और क्या कीजे।
दादू एक गलित गोविन्द सौं, इहि विधि प्राण पतीजे॥4॥

216. परिचय। चतुष्ताल

पीव घर आवने ए, अहो मोहि भावनो ते॥टेक॥
मोहन नीको री हरी, देखूँगी अँखियाँ भरी।
राखूँ हौं उर धरी प्रीति खरी, मोहन मेरो री माई।
रहूँगी चरणों धाई, आनन्द बधाई, हरि के गुण गाई॥1॥
दादू रे चरण गहिए, जाई ते तिहाँ तो रहिए।
तन-मन सुख लहीए, बिनती गहीए॥2॥

217. त्रिताल

हाँ माई! मेरो राम वैरागी, तज जिन जाइ॥टेक॥
राम विनोद करत उर अंतरि, मिल हौं वैरागनि धाइ॥1॥
जोगिन ह्वै कर फिरूँगी विदेशा, राम नाम ल्यौ लाइ॥2॥
दादू को स्वामी है रे उदासी, रहि हौं नैन दोइ लाइ॥3॥

218. उपदेश चेतावनी। राजमृगांक ताल

रे मन गोविन्द गाइ रे गाइ, जन्म अविरथा जाइ रे जाइ॥टेक॥
ऐसा जन्म न बारंबारा, तातैं जपले राम पियारा॥1॥
यहु तन ऐसा बहुतर न पावे, तातैं गोविन्द काहे न गावे॥2॥
बहुत न पावे मानुष देही, तातैं करले राम सनेही॥3॥
अब के दादू किया पिहाला, गाइ निरंजन दीन दयाला॥4॥

219. काल चेतावनी। राजमृगांक ताल

मन रे सोवत रैणि विहानी, तैं अजहूँ जात न जानी॥टेक॥
बीती रैणि बहुर नहिं आवे, जीव जाग जिन सोवे।
चारों दिशा चोर घर लागे, जाग देख क्या होवे॥1॥
भोर भये पछतावण लागा, माँहिं महल कुछ नाँहीं।
जब जाइ काल काया कर लागे, तब सोधे घर माँहीं॥2॥
जाग जनत कर राखो सोई, तब तन तत्त न जाई।
चेतन पहरे चेतन नाँहीं, कहि दादू समझाई॥3॥

220. राज विद्याधर ताल

देखत ही दिन आइ गये, पलट केश सब श्वेत भये॥टेक॥
आई जरा मीच अरु मरणा, आया काल अबै क्या करणा॥1॥
श्रवणों सुरति गई नैन न सूझे, सुधि-बुधि नाठी कह्या न बूझे॥2॥
मुखतैं शब्द विकल भइ बाणी, जन्म गया सब रैणि बिहाणी॥3॥
प्राण पुरुष पछतावण लागा, दादू अवसर काहे न जागा॥4॥

221. उपदेश। राजा विद्याधर ताल

हरि बिन हाँ हो कहुँ सचु नाँहीं, देखत जाइ विषय फल खाहीं॥टेक॥
रस रसना के मीन मन भीरा, जल तैं जाइ यों दहै शरीरा॥1॥
गज के ज्ञान मगन मद माता, अंकुश डोरि गहै फँद गाता॥2॥
मरकट मूठी माँहिं मन लागा, दुःख की राशि भ्रमै भ्रम भागा॥3॥
दादू देखु हरी सुख दाता, ताको छाड कहाँ मन राता॥4॥

222. उदीक्षण ताल

सांई बिना संतोष न पावे, भावै घर तज वन-वन धावे॥टेक॥
भावै पढ गुण वेद उचारे, आगम निगम सबै विचारे॥1॥
भावै नव खंड सब फिर आवे, अजहूँ आगे काहे न जावे॥2॥
भावै सब तज रहै अकेला, भाई बंधु न काहू मेला॥3॥
दादू देखे सांई सोई, साँच बिना संतोष न होई॥4॥

223. मनोपदेश चेतावनी। उदीक्षण ताल

मन माया रातो भूले,
मेरी मेरी कर कर बोरे, कहा मुगध नर फूले॥टेक॥
माया कारण मूल गमावे, समझ देख मन मेरा।
अंत काल जब आइ पहूँचा, कोई नहीं तब तेरा॥1॥
मेरी मेरी कर नर जाणे, मन मेरी कर रहिया।
तब यहु मेरी काम न आवे, प्राण पुरुष जब गहिया॥2॥
राव रंक सब राजा राणा, सबहिन को बौरावे।
छत्रपति भूपति तिनके सँग, चलती बेर न आवे॥3॥
चेत विचार जान जिय अपने, माया संग न जाई।
दादू हरि भज समझ सयाना, रहो राम ल्यौ लाई॥4॥

224. काल चेतावणी। ललित ताल

रहसी एक उपावणहारा, और चलसी सब संसारा॥टेक॥
चलसी गगन-धरणि सब चलसी, चलसी पवन अरु पाणी।
चलसी चंद-सूर पुनि चलसी, चलसी सबै उपानी॥1॥
चलसी दिवस रैण भी चलसी, चलसी जुग जम वारा।
चलसी काल व्याल पुनि चलसी, चलसी सबै पसारा॥2॥
चलसी स्वर्ग-नरक भी चलसी, चलसी भूचणहारा।
चलसी सुख-दुःख भी चलसी, चलसी कर्म विचारा॥3॥
चलसी चंचल निश्चल, रहसी, चलसी जे कुछ कीन्हा।
दादू देख रहै अविनाशी, और सबै घट क्षीना॥4॥

225. त्रिताल

इहि कलि हम मरणे को आये, मरण मीत उन संग पठाये॥टेक॥
जब तैं यहु हम मरण विचारा, तब तैं आगम पंथ सँवारा॥1॥
मरण देख हम गर्व न कीन्हा, मरण पठाये सो हम लीन्हा॥2॥
मरणा मीठा लागे मोहि, इहि मरणे मीठा सुख होइ॥3॥
मरणे पहली मरे जे कोई, दादू सो अजरावर होई॥4॥

226. त्रिताल

रे मन मरणे कहा डराई, आगे-पीछे मरणा रे भाई॥टेक॥
जे कुछ आवे थिर न रहाई, देखत सबै चल्या जग जाई॥1॥
पीर पैगम्बर किया पयाना, शेख मुशायक सबै समाना॥2॥
ब्रह्मा विष्णु महेश महाबलि, मोटे मुनि जन गये सबै चलि॥3॥
निश्चल सदा सोइ मन लाई, दादू हर्ष राम गुण गाई॥4॥

227. वस्तु निर्देश निर्णय। मल्लिकामोद ताल

ऐसा तत्त्व अनूपम भाई, मरे न जीवे काल न खाई॥टेक॥
पावक जरे न मार्यो मरई काट्यो कटे न टार्यो टरई॥1॥
अक्षर खिरे न लागे काई, शीत घाम जल डूब न जाई॥2॥
माटी मिले न गगन बिलाई, अघट एक रस रह्या समाई॥3॥
ऐसा तत्त्व अनूपम कहिए, सो गह दादू काहे न रहिए॥4॥

228. मनोपदेश। मल्लिकामोद ताल

मन रे सेव निरंजन राई, ताको सेवो रे चित लाई॥टेक॥
आदि अंतै सोई उपावे, परलै ले छिपाई।
बिन थंभा जिन गगन रहाया, सो रह्या सबन में समाई॥1॥
पाताल माँहीं जे आराधै, वासुकि रे गुण गाई।
सहस मुख जिह्वा ह्वै ताके, सोभी पार न पाई॥2॥
सुर-नर जाको पार न पावे, कोटि मुनी जन ध्याई।
दादू रे तन ताको है रे, जाको सकल लोक आराही॥3॥

229. जीव-उपदेश। भंगताल

निरंजन योगी जान ले चेला, सकल वियापी रहै अकेला॥टेक॥
खपर न झोली डंड अधारी, मढी न माया लेहु विचारी॥1॥
सींगी मुद्रा विभूति न कंथा, जटा जाप आसण नहिं पंथा॥2॥
तीरथ व्रत न वन खंड बासा, माँग न खाइ नहीं जग आशा॥3॥
अमर गुरु अविनासी योगी, दादू चेला महारस भोगी॥4॥

230. उपदेश। भंगताल

जोगिया वैरागी बाबा, रहै अकेला उनमनि लागा॥टेक॥
आतम योगी धीरज कंधा, निश्चल आसण आगम पंथा॥1॥
सहजैं मुद्रा अलख अधारी, जनहद सींगी रहणि हमारी॥2॥
काया वन खंड पाँचों चेला, ज्ञान गुफा में रहै अकेला॥3॥
दादू दरशण कारण जागे, निरंजन नगरी भिक्षा माँगे॥4॥

231. समता ज्ञान। ललित ताल

बाबा कहु दूजा क्यों कहिए, तातैं इहि संशय दुःख सहिए॥टेक॥
यहु मति ऐसी पशुवां जैसी, काहे चेतत नाँहीं।
अपणा अंग आप नहिं जाणे, देखे दर्पण माँहीं॥1॥
इहि मति मीच मरण के तांई, कूप सिंह तहँ आया।
डूब मुवा मन मरम न जान्या, देख आपणी छाया॥2॥
मद के माते समझत नाँहीं, मैंगल की मति आई।
आपै आप आप दुःख दीन्हा, देख आपणी झाँई॥3॥
मन समझे तो दूजा नाँहीं, बिन समझे दुःख पावे।
दादू ज्ञान गुरु का नाँहीं, समझे कहाँ तें आवे॥4॥

232. ललित ताल

बाबा नाँहीं दूजा कोई,
एक अनेक नाम तुम्हारे, मोपै और न होई॥टेक॥
अलख इलाही एक तूं, तूं ही राम-रहीम।
तूं ही मलिक मोहना, केशव नाम करीम॥1॥
सांई सिरजनहार तूं, तूं पावन तूं पाक।
तूं कायम करतार तूं, तूं हरि हाजिर आप॥2॥
रमता राजिक एक तूं, तूं सारंग सुबहान।
कादिर करता एक तूं, तूं साहिब सुलतान॥3॥
अविगत अल्लह एक तूं, गनी गुसांई एक।
अजब अनूपम आप है, दादू नाम अनेक॥4॥

223. समर्थाई। रंग ताल

जीवत मारे मुये जिलाये, बोलत गूँगे गूँग बुलाये॥टेक॥
जागत निश भर सोई सुलाये, सोवत रैनी सोई जगाये॥1॥
सूझत नैनहुँ लोइ न लीये, अंध विचारे ता मुख दीये॥2॥
चलते भारी ते बिठलाये, अपंग विचारे सोई चलाये॥3॥
ऐसा अद्भुत हम कुछ पाया, दादू सद्गुरु कह समझाया॥4॥

234. प्रश्न। रंगताल

क्यों कर यह जग रच्यो गुसांई,
तेरे कौण विनोद बन्यो मन माँहीं॥टेक॥
कै तुम आपा परकट करणा, कै यहु रचले जीव उधरणा॥1॥
कै यहु तुम को सेवक जानैं, कै यहु रचले मन के मानैं॥2॥
कै यहु तुम को सेवक भावे, कै यहु रचले खेल दिखावे॥3॥
कै यहु तम को खेल पियारा, कै यहु भावे कीन्ह पसारा॥4॥
यहु सब दादू अकथ कहाणी, कह समझावो सारंग प्राणी॥5॥

उत्तर की साखी

दादू परमारथ को सब किया, आप स्वारथ नाँहिं।
परमेश्वर परमारथी, कै साधु कलि माँहिं।
खालिक खेले खेल कर, बूझे विरला कोय।
लेकर सुखिया ना भया, देकर सुखिया होय॥

235. समर्थाई। झपताल

हरे-हरे सकल भुवन भरे, युग-युग सब करे।
युग-युग सब धरे, अकल-सकल जरे, हरे-हरे॥टेक॥
सकल भुवन छाजे, सकल भुवन राजे, सकल कहै।
धरती-अम्बर गहै, चंद-सूर सुधि लहै, पवन प्रकट बहै॥1॥
घट-घट आप देवे, घट-घट आप लेवे, मंडित माया।
जहाँ-तहाँ आप राया, जहाँ-तहाँ आप छाया, अगम-अगम पाया॥2॥
रस माँहीं रस राता, रस माँहीं रस माता, अमृत पीया।
नर माँहीं नूर लीया, तेज माँहीं तेज कीया, दादू दरश दीया॥3॥

236. परिचय उपदेश। चौताल

पीव-पीव आदि अन्त पीव,
परस-परस अंग-संग, पीव तहाँ जीव॥टेक॥
मन पवन भवन गवन, प्राण कमल माँहिं।
निधि निवास विधि विलास, रात-दिवस नाँहिं॥1॥
श्वास बास आस पास, आत्म अंग लगाइ।
ऐन बैन निरख नैन, गाइ-गाइ रिझाइ॥2॥
आदि तेज अन्त तेज, सहजैं सहज आइ।
आदि नूर अन्त नूर, दादू बलि-बलि जाइ।3॥

237. चौताल

नूर-नूर अव्वल आखिर नूर,
दायम कायम, कायम दायम, हाजिर है भरपूर॥टेक॥
आसमान नूर, जमीं नूर, पाक परवरदिगार।
आब नूर, बाद नूर, खूब खूबां यार॥1॥
जाहिर बातिन हाजिर नाजिर, दाना तूं दीवान।
अजब अजाइब नूर दीदम, दादू है हैरान॥2॥

238. रस। त्रिताल

मैं अमली मतवाला माता, प्रेम मगन मेरा मन राता॥टेक॥
अमी महारस भर-भर पीवे, मन मतवाला योगी जीवे॥1॥
रहै निरन्तर गगन मंझारी, प्रेम पिलाया सहज खुमारी॥2॥
आसण अवधू अमृत धारा, युग-युग जीवे पीवणहारा॥3॥
दादू अमली इहि रस माते, राम रसायण पीवत छाके॥4॥

239. निज उपदेश। त्रिताल

सुख-दुःख संशय दूर किया, तब हम केवल राम लिया॥टेक॥
सुख-दुःख दोऊ भरम विकारा, इन सौं बंध्या है जग सारा॥1॥
मेरी मेरा सुख के तांई, जाय जन्म नर चेते नाँहीं॥2॥
सुख के तांई झूठा बोले, बाँधे बन्धन कबहुँ न खोले॥3॥
दादू सुख-दुःख संग न जाई, प्रेम प्रीति पिव सौं ल्यौ॥4॥

240. हैरान। वर्णभिन्न ताल

कासौं कहूँ हो अगम हरि बाता, गगन धरणि दिवस नहिं राता॥टेक॥
संग न साथी गुरु नहिं चेला, आस न पास यों रहै अकेला॥1॥
वेद न भेद न करत विचारा, अवरण वरण सबन तैं न्यारा॥2॥
प्राण न पिंड रूप नहिं रेखा, सोइ तत सार नैन बिन देखा॥3॥
योग न भोग मोहि नहिं माया, दादू देख काल नहिं काया॥4॥

241. गुरु ज्ञान। वर्णभिन्न ताल

मेरा गुरु ऐसा ज्ञान बतावे,
काल न लागे संशय भागे, ज्यों है त्यों समझावे॥टेक॥
अमर गुरु के आसण रहिए, परम ज्योति तहँ लहिए।
परम तेज सो दृढ़ कर गहिए, गहिए लहिए रहिए॥1॥
मन पवना गह आतम खेला, सहज शून्य घर मेला।
अगम अगोचर आप अकेला, अकेला मेला खेला॥2॥
धरती-अम्बर चंद न सूरा, सकल निरतर पूरा।
शब्द अनाहद बाजहि तूरा, तूरा पूरा सूरा॥3॥
अविचल अमर अभय पद दाता, तहाँ निरंजन राता।
ज्ञान गुरु ले दादू माता, माता राता दाता॥4॥

242. राज विद्याधर ताल

मेरा गुरु आप अकेला खेले,
आपै देवे आपै लेवे, आपै द्वै कर मेले॥टेक॥
आपै आप उपावे माया, पंच तत्त्व कर काया।
जीव जन्म ले जग में आया, आया काया माया॥1॥
धरती-अम्बर महल उपाया, सब जग धंधै लाया।
आपै अलख निरंजन राया, राया लाया उपाया॥2॥
चंद-सूर दो दीपक कीन्हा, रात-दिवस कर लीन्हा।
राजिक रिजक सबन को दीन्हाँ, दीन्हाँ लीन्हाँ कीन्हाँ॥3॥
परम गुरु सो प्राण हमारा, सब सुख देवे सारा।
दादू खेले अनत अपारा, अपारा सारा हमारा॥4॥

243. हैरान। राज विद्याधर ताल

थकित भयो मन कह्यो न जाई, सहज समाधि रह्यो लाई॥टेक॥
जे कुछ कहिए सोच-विचरा, ज्ञान अगोचर अगम अपारा॥1॥
साइर बूँद कैसे कर तोले, आप अबोल कहा कह बोले॥2॥
अनल पंखि परे पर दूर, ऐसे राम रह्य भरपूर॥3॥
अब मन मेरा ऐसे रे भाई, दादू कहबा कहण न जाई॥4॥

244. मल्लिका मोद ताल

अविगत की गति कोइ न लहै, सब अपणा उनमान कहै॥टेक॥
केते ब्रह्मा वेद विचारैं, केते पंडित पाठ पढ़ैं।
केते अनुभव आतम खोजैं, केते सुर-नर नाम रटैं॥1॥
केते ईश्वर आसण बैठे, केते योगी ध्यान धरैं।
केते मुनिवर मन को मारैं, केते ज्ञानी ज्ञान करैं॥2॥
केते पीर केते पैगम्बर, केते पढैं कुराना।
केते काजी केते मुल्ला, केते शेख सयाना॥3॥
केते पारिख अंत न पावैं, वार पार कुछ नाँहीं।
दादू कीमत कोई न जाणे, केते आवैं जाँहीं॥4॥

245. मल्लिका मोद ताल

ए हौं बूझ रही पिव जैसा है, तैसा कोई न कहै रे।
अगम अगाध अपार अगोचर, सुधि-बुधि कोई न लहै रे॥टेक॥
वार पार कोइ अंत न पावे, आदि-अंत मधि नाँहीं रे।
खरे सयाने भये दिवाने, कैसा कहाँ रहै रे॥1॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर बूझे, केता कोई बतावे रे।
शेख मुशायक पीर पैगम्बर, है कोई अगह गहै रे॥2॥
अम्बर-धरती सूर-शशि बूझे, वायु वरण सब सोधे रे।
दादू चकित है हैराना, को है कर्म दहै रे॥3॥

॥इति राग आसावरी सम्पूर्ण॥