अथ राग गुंड (गौंड) / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ राग गुंड (गौंड)
(गायन समय वर्षा ऋतु में सब समय, संगीत-प्रकाश के मतानुसार)
312. भक्ति निष्काम। सुरफाख्ता ताल
दर्शन दे राम दर्शन दे, हौं तो तेरी मुक्ति न माँगूँ॥टेक॥
सिद्धि न माँगूँ ऋद्धि न माँगूँ, तुम्ह ही माँगूँ गोविन्दा॥1॥
योग न माँगूँ वन नहिं माँगूँ, तुम्ह हीं माँगूँ रामजी॥2॥
घर नहिं माँगूँ वन न माँगूँ, तुम्ह ही माँगूँ देवजी॥3॥
दादू तुम बिन और न माँगूँ, दर्शन माँगूँ देहुजी॥4॥
313. विरह विनती। सुरफाख्ता ताल
तूं आपै ही विचार, तुझ बिन क्यों रहूँ।
मेरे और न दूजा कोई, दुःख किसको कहूँ॥टेक॥
मीत हमारा सोइ, आदे जे पीया।
मुझे मिलावे कोइ, वे जीवन जीया॥1॥
तेरे नैन दिखाइ, जीऊँ जिस आसरे।
सो धन जीवे क्यों, नहीं जिस पास रे॥2॥
पिंजर माँहीं प्राण, तुम बिन जाइ सी।
जन दादू माँगे मान, कब घर आइ सी॥3॥
314. सुरफाख्ता ताल
हूँ जोइ रही रे बाट, तूं घर आवने।
तारा दर्शन थी सुख होइ, ते तूं ल्यावने॥टेक॥
चरण जोवा न खांत, ते तूं देखाड़ने।
तुझ बिना जीव देइ, दुहेली कामिनी॥1॥
नैण निहारूँ बाट, ऊभी चावनी।
तूं अंतर थी उरो आव, देही जवानी॥2॥
तूं दया कर घर आव, दासी गावनी।
जन दादू राम सँभाल, बैन सुहानी॥3॥
315. झपताल
पीव देखे बिन क्यों रहुँ, जिय तलफे मेरा।
सब सुख आनंद पाइए, मुख देखूँ तेरा॥टेक॥
पिव बिन कैसा जीवणा, मोहि चैन न आवे।
निर्धन ज्यों धन पाइए, जब दर्श दिखावे॥1॥
तुम बिन क्यों धीरज धरूँ, जो लौं तोहि न पाऊँ।
सन्मुख ह्वै सुख दीजिए, बलिहारी जाऊँ॥2॥
विरह वियोग न सह सकूँ, कायर घट काचा।
पावन परस न पाइए, सुन साहिब साँचा॥3॥
सुनिए मेरी वीनती, अब दर्शन दीजे।
दादू देखन पाव ही, तैसे कुछ कीजे॥4॥
316. प्रीति अखंडिता दादरा
इहि विधि वेध्यो मोर मना, ज्यों लै भृंगी कीट तना॥टेक॥
चातक रटतै रैन बिहाइ, पिंड परे पै बाण न जाइ॥1॥
मरे मीन बिसरे नहिं पाणी, प्राण तजे उन और न जाणी॥2॥
जले शरीर न मोड़े अंगा, ज्योति न छाड़े पड़े पतंगा॥3॥
दादू अब तैं ऐसे होइ, पिंड पड़े नहिं छाडूँ तोहि॥4॥
317. विरह। त्रिताल
आओ राम दया कर मेरे, बार-बार बलिहारी तेरे॥टेक॥
विरहनि आतुर पंथ निहारे, राम-राम कह पीव पुकार॥1॥
पंथी बूझे मारग जोवे, नैन नीर जल भर-भर रोवे॥2॥
निश दिन तलफै रहै उदास, आतम राम तुम्हारे पास॥3॥
वपु बिसरे तन की सुधि नाँहीं, दादू विरहनि मृतक माँहीं॥4॥
318. केवल विनती। रूपक ताल
निरंजन क्यों रहै मौन गहे वैराग्य, केते युग गये॥टेक॥
जागे जगपति राइ, हँस बोले नहीं।
परकट घूँघट माँहीं, पट खोले नहीं॥1॥
सदके करूँ संसार, सब जग वारणे।
छाडूँ पिंड पराण, पाऊँ शिर धरूँ।
ज्यों-ज्यों भावे राम, सो सेवा करूँ॥3॥
दीनानाथ दयाल! विलम्ब न कीजिए।
दादू बलि-बलि जाय, सेज सुख दीजिए॥4॥
319. निरंजन स्वरूप। त्रिताल
निरंजन यूँ रहै, काहूँ लिप्त न होइ,
जल-थल स्थावर जंगमा, गुण नहिं लागे कोइ॥टेक॥
धर अम्बर लागे नहीं, जहाँ-तहाँ भरपूर॥1॥
निश वासर लागे नहीं, नहिं लागे शीतल घाम।
क्षुधा त्रिषा लागे नहीं, घट-घट आतम राम॥2॥
माया-मोह लगे नहीं, नहिं लागे काया जीव।
काल कर्म लागे नहीं, परकट मेरा पीव॥3॥
इकलस एकै नूर है, इकलस एकै तेज।
इकलस एकै ज्योति है, दादू खेले सेज॥4॥
320. विनय। त्रिताल
जगजीवन प्राण अधार, वाचा पालना।
हौं कहाँ पुकारूँ जाइ, मेरे लालना॥टेक॥
मेरे वेदन अंग अपार, सो दुःख टालना।
सागर यह निस्तार, गहरा अति घणा॥1॥
अंतर है सो टाल कीजे आपणा।
मेरे तुम बिन और न कोई, इहै विचारणा॥2॥
तातैं करूँ पुकार, यहु तन चलणा।
दादू को दर्शन देहु, जाय दुःख सालणा॥3॥
321. मन सुधारार्थ विनती। मल्लिका मोद ताल
मेरे तुम ही राखणहार, दूजा को नहीं।
यह चंचल चहुँ दिशि जाय, काल तहीं-तहीं॥टेक॥
मैं केते किये उपाय, निश्चल ना रहै।
जहँ बरजूँ तहँ जाय, मद मातो बहै॥1॥
जहँ जाणे तहँ जाय, तुम तैं ना डरे।
तासों कहा बसाइ, भावे त्यों करे॥2॥
सकल पुकारे साधु, मैं केता कह्या।
गुरु अंकुश माने नाँहिं, निर्भय ह्वै रह्या॥3॥
तुम बिन और न कोइ, इस मन को गहै।
तूं राखे राखणहार, दादू तो रहै॥4॥
322. संसार तरणार्थ विनती। दीपचन्द ताल
निरंजन कायर कंपे प्राणिया, देख यहु दरिया।
वार पार सूझे नहीं, मन मेरा डरिया॥टेक॥
अति अथाह यह भव जला, आसंध नहिं आवे।
देख-देख डरपै घणा, प्राणी दुःख पावे॥1॥
विष जल भरिया सागरा, सब थके सयाना।
तुम बिन कहु कैसे तिरूँ, मैं मूढ अयाना॥2॥
आगे ही डरपे घणा, मेरी का कहिए।
कर गह काढो केशवा, पार तो लहिए॥3॥
एक भरोसा तोर है, जे तुम होहु दयाल।
दादू कहु कैसे तिरे, तूं तार गोपाल॥4॥
323. समर्थ-उपदेश। दादरा ताल
समर्थ मेरा सांइयाँ, सकल अघ जारे।
सुख दाता मेरे प्राण का, संकोच निवारे॥टेक॥
त्रिविधि ताप तन को हरे, चौथे जन राखे।
आप समागम सेवका, साधु यूँ भाखे॥1॥
आप करे प्रतिपालना, दारुण दुःख टारे।
इच्छा जन की पूरवे, सब कारज सारे॥2॥
कर्म कोटि भय भंजना, सुख मंडन सोई।
मन मनोरथ पूरणा, ऐसा और न कोई॥3॥
ऐसा और न देखि हौं, सब पूरण कामा।
दादू साधु संगी किये, उन आतम रामा॥4॥
324. मन स्थिरार्थ विनय। त्रिताल
तुम बिन राम कौन कलि माँहीं, विषया तैं कोइ बारे रे।
मुनिवर मोटा मनवे बाह्या, येन्हा कौन मनोरथ मारे रे॥टेक॥
छिन एक मनवो मर्कट म्हारो, घर-घर वार नचावे रे।
छिन एक मनवो चंचल म्हारो, छिन एक घर में आवे रे॥1॥
छिन एक मनवो मीन हमारो, सचराचर में धावे रे।
छिन एक मनवो उदमद मातो, स्वादैं लागो खारे रे॥2॥
छिन एक मनवो ज्योति पतंगा, भ्रम-भ्रम स्वादैं दाझे रे।
छिन एक मनवो लोभैं लागो, आपा पर में बाझे रे॥3॥
छिन एक मनवो कुंजर म्हारो, वन-वन माँहिं भ्रमाड़े रे।
छिन एक मनवो कामी म्हारो, विषया रंग रमाड़े रे॥4॥
छिन एक मनवो मिरग हमारो, नादैं मोह्यो जाये रे।
छिन एक मनवो माया रातो, छिन एक हमने बाहेरे॥5॥
छिन एक मनवो भँवर हमारो, बासे कमल बँधाणों रे।
छिन एक मनवो चहुँ दिशि जाये, मनवा ने कोई आँणे रे॥6॥
तुम बिन राखे कौन विधाता, मुनिवर साखी आणें रे।
दादू मृतक छिन में जीवे, मनवा ना चरित न जाणें रे॥7॥
325. बेखर्च व्यसनी। ब्रह्म ताल
करणी पोच, सोच सुख करई,
लोह की नाव कैसे भव जल तिर ही॥टेक॥
दक्षिण जात, पच्छिम कैसे आवे,
नैन बिन भूल बाट कित पावे॥1॥
विष वन बेलि, अमृत फल चाहै,
खाइ हलाहल, अमर उमाहै॥2॥
अग्नि गृह पैसि कर सुख क्यों सोवे,
जलन लागी घणी, शीत क्यों होवे॥3॥
पाप पाखंड कीये, पुन्य क्यों पाइए,
कूप खन पड़िबा, गगन क्यों जाइए॥4॥
कहै दादू मोहि अचरज भारी,
हृदय कपट क्यों मिले मुरारी॥5॥
326. परिचय प्राप्ति। खेमटा ताल
मेरा मन के मन सौं मन लागा,
शब्द के शब्द सौं नाद बागा॥टेक॥
श्रवण के श्रवण सुन सुख पाया, नैन के नैन सौं निरख राया॥1॥
प्राण के प्राण सौं खेल प्राणी, मुख के मुख सौं बोल वाणी॥2॥
जीव के जीव सौं रंग राता, चित्त के चित्त सौं प्रेम माता॥3॥
शीश के शीश सौं शीश मेर, देखरे दादू वा भाग तेरा॥4॥
327. मन को उपदेश। त्रिताल
मेरु शिखर चढ बोल मन मोरा,
राम जल वर्षे शब्द सुन तोरा॥टेक॥
आरत आतुर पीव पुकारे, सोवत-जागत पंथ निहारे॥1॥
निश वासर कह अमृत वाणी, राम नाम ल्यौ लाइ ले प्राणी॥2॥
टेर मन भाई जब लग जीवे, प्रीति कर गाढ़ी प्रेम रस पीवे॥3॥
दादू अवसर जे जन जावे, राम घटा जल वरषण लागे॥4॥
328. वैराग्य उपदेश। त्रिताल
नारी नेह न कीजिए, जे तुझ राम पियारा।
माया मोह न बँधिए, तजिए संसारा॥टेक॥
विषया रँग राचे नहीं, नहिं करे पसारा।
देह गेह परिवार में, सब तैं रहै नियारा॥1॥
आपा पर उरझे नहीं, नाँहीं मैं मेरा।
मनसा वाचा कर्मना, सांई सब तेरा॥2॥
मन इन्द्रिय सुस्थिर करे, कतहुँ नहिं डोले।
जग विकार सब परिहरै, मिथ्या नहिं बोले॥3॥
रहै निरंतर राम सौं, अंतर गति राता।
गावे गुण गोविन्द का, दादू रस माता॥4॥
329. आज्ञाकारी। झपताल
तूं राखे त्यों हीं रहै, तेई जन तेरा,
तुम बिन और न जान हीं, सो सेवक नेरा॥टेक॥
अम्बर आपै ही धर्या, अजहूँ उपकारी।
धरती धारी आप तें, सबही सुखकारी॥1॥
पवन पास सब के चले, जैसे तुम कीन्हा।
पानी परकट देखि हूँ, सब सौं रहै भीना॥2॥
चंद चिराकी चहुँ दिशा, सब शीतल जाने।
सूरज भी सेवा करे, जैसे भल माने॥3॥
ये निज सेवक तेरड़े, सब आज्ञाकारी।
मोको ऐसे कीजिए, दादू बलिहारी॥4॥
330. निन्दक। झपताल
निन्दक बाबा बीर हमारा, बिन हीं कौड़ी बहै विचारा॥टेक॥
कर्म कोटि के कुश्मल काटे, काज सँवारे बिन ही साटे॥1॥
आपण डूबे और को तारे, ऐसा प्रीतम पार उतारे॥2॥
युग-युग जीवो निन्दक मोरा, राम देव तुम करो निहोरा॥3॥
निन्दक बपुरा पर उपकारी, दादू निन्दा करे हमारी॥4॥
331. विरह विनती। शूलताल
देहुजी देहुजी, प्रेम पियाला देहुजी, देकर बहुर न लेहुजी॥टेक॥
ज्यों-ज्यों नूर न देखूँ तेरा, त्यों-त्यों जियरा तलफे मेरा॥1॥
अमी महा रस नाम न आवे, त्यों-त्यों प्राण बहुत दुःख पावे॥2॥
प्रेम भक्ति-रस पावे नाँहीं, त्यों-त्यों साले मन ही माँहीं॥3॥
सेज सुहाग सदा सुख दीजे, दादू दुखिया विलम्ब न कीजे॥4॥
332. परिचय विनती। त्रिताल
वर्षहु राम अमृत धारा, झिलमिल-झिलमिल सींचनहारा॥टेक॥
प्राण बेलि निज नीर न पावे, जलहर बिना कमल कुम्हलावे॥1॥
सूखे बेलि सकल वनराय, राम-देव जल वर्षहु आय॥2॥
आतम बेलि मरे पियास, नीर न पावे दादू दास॥3॥
॥इति राग गुंड (गौंड) सम्पूर्ण॥