भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अथ राग गौड़ी / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अथ राग गौड़ी

(गायन समय दिन 3 से 8)

शब्द-1 सुमिरण शूरातन नाम निश्चय । त्रिताल

राम-नाम नहिं छाडूँ भाई, प्राण तजूँ निकट जिय जाई॥टेक॥
रती-रती कर डारे मोहि, सांई संग न छाडूँ तोहि॥1॥
भावै ले शिर करवत दे, जीवण मूरि न छाडूँ ते॥2॥
पावक में ले डारे मोहि, जरे शरीर न छाडूँ तोहि॥3॥
अब दादू ऐसी बन आई, मिलूँ गोपाल निशान बजाई॥4॥

2. अन्य उपदेश। त्रिताल

राम-नाम जनि छाड़े कोई, राम कहत जन निर्मल होई॥टेक॥
राम कहत सुख-सम्पति सार, राम-नाम तिर लंघै पार॥1॥
राम कहत सुधि-बुधि मति पाई, राम-नाम जनि छाडहु भाई॥2॥
राम कहत जन निर्मल होई, राम नाम कह कलमश धोई॥3॥
राम कहत को को नहिं तारे, यहु तन दादू प्राण हमारे॥4॥

3. सुमिरण उपदेश। राज मृगांक ताल

मेरे मन भैया राम कहो रे,
राम-नाम मोहिं सहज सुणावे, उनहीं चरण मन लीन रहो रे॥टेक॥
राम-नाम ले संत सुहावे, कोई कहै सब शीश सहो रे।
बाही सौं मन जोरे राखो, नीके राशि लिये निबहो रे॥1॥
कहत-सुणत तेरो कछू न जावे, पाप निछेदन सोइ लहो रे।
दादू रे जन हरि गुण गावो, कालहि ज्वालहि फेरि दहो रे॥2॥

4. विरह। एकताल

कौण विधि पाइये रे, मीत हमारा सोय॥टेक॥
पास पीव परदेश है रे, जब लग प्रकटे नाँहिं।
बिन देखे दुख पाइये, यहु सालै मन माँहिं॥1॥
जब लग नेन न देखिए, परगट मिले न आय।
एक सेज संगहि रहै, यहु दुख सह्या न जाय॥2॥
तब लग नेड़े दूर है रे, जब लग मिले न मोहि।
नैन निकट नहिं देखिए, संग रहे क्या होइ॥3॥
कहा करूँ कैसे मिले रे, तलफे मेरा जीव।
दादू आतुर विरहणी, कारण अपणे पीव॥4॥

5. विरह विलाप। षडताल

जियरा क्यों रहै रे, तुम्हारे दर्शन बिन बे हाल॥टेक॥
परदा अंतर कर रहै, हम जीवैं किहिं आधार।
सदा संगाती प्रीतमा, अब के लेहु उबार॥1॥
गोप्य गुसाँई ह्वै रहे, अब काहे न परगट होय।
रराम सनेही संगिया, दूजा नाँहीं कोय॥2॥
अंतरयामी छिप रहे, हम क्यों जीवैं दूर।
तुम बिन व्याकुल केशवा, नैन रहे जल पूर॥3॥
आप अपरछन ह्वै रहे, हम क्यों रैणि बिहाइ।
दादू दर्शन कारणे, तलफ-तलफ जिव जाइ॥4॥

6. विरह हैरान। त्रिताल

अजहूँ न निकसै प्राण कठोर,
दर्शन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर॥टेक॥
चार पहर चारों युग बीते, रैनि गमाई भोर।
अवधि गई अजहूँ नहिं आये, कतहूँ रहे चित चोर॥1॥
कबहूँ नैन निरख नहिं देखे, मारग चितवत तोर।
दादू ऐसे आतुर विरहणि, जैसे चंद चकोर॥2॥

7. सुन्दरी शृंगार। त्रिताल

शोधन पीवजी साज सँवारी,
अब बेगि मिलो तन जाइ बनवारी॥टेक॥
साज-शृंगार किया मन माँहीं,
अजहूँ पीव पतीजे नाँहीं॥1॥
पीव मिलण को अह निश जागी,
अजहूँ मेरी पलक न लागी॥2॥
जतन-जतन कर पंथ निहारूँ,
पिव भावे त्यों आप सँवारूँ॥3॥
अब सुख दीजे जाउँ बलिहारी,
कहै दादू सुण विपति हमारी॥4॥

8. विरह चिन्ता। गजताल

सो दिन कबहूँ आवेगा,
दादूड़ा पीव पावेगा॥टेक॥
क्यों ही अपणे अंग लगावेगा,
तब सब दुःख मेरा जावेगा॥1॥
पीव अपणे बैन सुणावेगा,
तब आनँद अंग न मावेगा॥2॥
पीव मेरी प्यास मिटावेगा,
तब आपहि प्रेम पिलावेगा॥3॥
दे अपणा दर्श दिखावेगा,
तब दादू मंगल गावेगा॥4॥

9. विरह प्रीति। पंचमताल

तैं मन मोह्यो मोर रे, रह न सकूँ हौं रामजी॥टेक॥
तोरे नाम चित लाइया रे, अवरन भया उदास।
सांई ये समझाइया, हौं संग न छाडूँ पास रे॥1॥
जाणूँ तिलहि न विछूटौं रे, जनि पछतावा होइ।
गुण तेरे रसना जपूँ, सुणसी सांई सोइ रे॥2॥
भोरैं जन्म गमाइया रे, चीन्हा नहिं सो सार।
अजहूँ यह अचेत है, अवर नहीं आधार रे॥3॥
पीव की प्रीति तो पाइये रे, जो शिर होवे भाग।
यो तो अनत न जाइसी, रहसी चरणहुँ लाग रे॥4॥
अनतैं मन निवारिया रे, मोहिं एकै सेती काज।
अनत गये दुख ऊपजे, मोहिं एकहिं सेती राज रे॥5॥
सांई सौं सहजैं रमूँ रे, और नहीं आन देव।
तहाँ मन विलम्बिया, जहाँ अलख अभेव रे॥6॥
चरण कमल चित लाइया रे, भौरैं ही ले भाव।
दादू जन अचेत है, सहजैं ही तूं आव रे॥7॥

10. विरह विलाप। पंचमताल

विरहणि को शृंगार न भावे,
है कोई ऐसा राम मिलावे॥टेक॥
बिसरे अंजन मंजन चीरा,
विरह व्यथा यहु व्यापे पीरा॥1॥
नव सत थाके सकल शृंगारा,
है कोई पीड़ मिटावणहारा॥2॥
देह गेह नहिं सुधि शरीरा,
निश दिन चितवन चातक नीरा॥3॥
दादू ताहि न भावे आन,
राम बिना भई मृतक समान॥4॥

11. करुणा विनती। पंजाबी त्रिताल

अब तो मोहि लागी वाइ,
उन निश्चल चित लियो चुराइ॥टेक॥
आन न रुचे और नहिं भावे,
अगम अगोचर तहँ मन जाय।
रूप ने रेखा वरण कहूँ कैसा,
तिन चरणों चित रह्या समाय॥1॥
तिन चरणों चित सहज समाना,
सो रस भीना तहँ मन धाइ।
अब तो ऐसी बन आई,
विष तजे अरु अमृत खाइ॥2॥
कहा करूँ मेरा वश नाँहीं,
और न मेरे अंग सुहाइ।
पल इक दादू देखण पावे,
तो जन्म-जन्म की तृषा बुझाइ॥3॥

12. करुणा विनती। पंजाबी त्रिताल

तूं जनि छाडे केशवा, मेरे और निवाहणहार हो॥टेक॥
अवगुण मेरे देखकर, तू ना कर मैला मन।
दीनानाथ दयाल है, अपरधी सेवक जन हो॥1॥
हम अपराधी जनम के, नख-शिख भरे विकार।
मेट हमारे अवगुणा, तूं गरवा सिरजनहार हो॥2॥
मैं जन बहुत बिगारिया, अब तुम ही लेहु सँवार।
समर्थ मेरा सांइयाँ, तूं आपै आप उधार हो॥3॥
तू न विसारी केशवा, मैं जन भूला तोहि।
दादू को और निवाह ले, अब जनि छाडे मोहि को॥4॥

13. केवल विनती। गजताल

राम सँभालिये रे, विषम दुहेली बार॥टेक॥
मंझ समुद्राँ नावरी रे, बूडे खेवट बाज।
काढणहारा को नहीं, एक राम बिन आज॥1॥
पार न पहुँचे राम बिन, भेरा भव जल माँहिं।
तारणहारा एक तूं, दूजा कोई नाँहिं॥2॥
पार परोहन तो चले, तुम खेवहु सिरजनहार।
भवसागर में डूब है, तुम बिन प्राण अधार॥3॥
आघट दरिया क्यों तिरै, बोहिथ बैसणहार।
दादू खेवट राम बिन, कौण उतारे पार॥4॥

14. रंगताल

पार नहिं पाइयेरे, राम बिना को निर्वाहणहार॥टेक॥
तुम बिन तारण को नहीं, दूभर यहु संसार।
पैरत थाके केशवा, सूझे वार न पार॥1॥
विखम भयानक भव जला, तुम बिन भारी होइ।
तू हरि तारण केशवा, दूजा नाँहीं कोइ॥2॥
तुम बिन खेवट को नहीं, अतिर तिरयो नाहिं जाय।
औघट भेरा डूबि है, नाँहीं आन उपाय॥3॥
यहु घट औघट विखम है, डूबत माँहिं शरीर।
दादू कायर राम बिन, मन नहिं बाँधे धीर॥4॥

15. रंगताल

क्यों हम जीवैं दास गुसांई,
जे तुम छाहडु समर्थ सांई॥टेक॥
जे तुम जन को मन हिं विसारा,
तो दूसर कौण सँभालनहारा॥1॥
जे तुम परिहर रहो नियारे,
तो सेवक जाइ कवन के द्वारे॥2॥
जे जन सेवक बहुत बिगारे,
तो साहिब गरवा दोष निवारे॥3॥
समर्थ सांई साहिब मेरा,
दादू दास दीन है तेरा॥4॥

16. करुणा। वीर विक्रम ताल

क्यों कर मिलै मोकौं राम गुसांई,
यहु विषिया मेरे वश नाँहीं॥टेक॥
यहु मन मेरा दह दिशि धावे,
नियरे राम न देखण पावे॥1॥
जिह्वा स्वाद सदै रस लागे,
इन्द्री भोग विषय को जागे॥2॥
श्रवण हुँ साच कदे नहिं भावे,
नैन रूप तहँ देख लुभावे॥3॥
काम-क्रोध कदे नहिं छीजे,
लालच लाग विषय रस पीजे॥4॥
दादू देख मिलै क्यों सांई
विषय विकार बसै मन माँहीं॥5॥

17. परिचय विनती। वीर विक्रम ताल

जो रे भाई राम दया नहिं करते,
नवका नाम खेवट हरि आपै, यों बिन क्यों निस्तरते॥टेक॥
करणी कठिन होत नहिं मोपैं, क्यों कर ये दिन भरते।
लालच लग परत पावक में, आपहि आपैं जरते॥1॥
स्वाद हि संग विषय नहिं छूटे, मन निश्चल नहीं धरते।
खाय हलाहल सुख के तांई, आपै हीं पच मरते॥2॥
मैं कामी कपटी क्रोध काया में, कूप परत नहिं डरते।
करवत काम शीश धर अपणे, आपहि आप विहरते॥3॥
हरि अपणा अंग आप नहीं छाडे, अपणी आप विचरते।
पिता क्यों पूत को मारे, दादू यों जन तिरते॥4॥

18. विरह विलाप विनती। द्वितीय ताल

तो लग जनि मारें तूं मोहि,
जो लग मैं देखूँ नहिं तोहि॥टेक॥
अब के बिछुरे मिलन कैसे होइ,
इहि विधि बहुरि न चीन्हे कोइ॥1॥
दीन दयाल दया कर जोइ,
सब सुख आनन्द तुम तैं होइ॥2॥
जन्म-जन्म के बन्धन खोइ,
देखन दादू अहनिश रोइ॥3॥

19. स्पर्श विनती। द्वितीय ताल

संग न छाडूँ मेरा पावन पीव,
मैं बलि तेरे जीवन जीव॥टेक॥
संग तुम्हारे सब सुख होइ,
चरण कमल मुख देखूँ तोहि॥1॥
अनेक जतन कर पाया सोइ,
देखूँ नैनहुँ तो सुख होइ॥2॥
शरण तुम्हारी अंतर वास,
चरण कमल तहँ देहु निवास॥3॥
अब दादू मन अनत न जाइ,
अंतर वेधि रह्यो ल्यो लाइ॥4॥

20. परिचय विनती (गुजराती भाषा) त्रिताल

नहिं मेल्हूँ राम, नहिं मेल्हूँ,
मैं शोधि लीधो नहिं मेल्हूँ,
चित तूं सूं बाँधूँ नहिं मेल्हूँ॥टेक॥
हूँ तारे काजे तालाबेली,
हवे केम मने जाशे मेली॥1॥
साहसि तूं ने मनसों गाढौ,
चरण समानो केवी पेरे काढौ॥2॥
राखिश हृदे, तूं मारो स्वामी,
मैं दुहिले पाम्यों अंतरजामी॥3॥
हवे न मेल्हूँ, तूं स्वामी म्हारो,
दादू सन्मुख सेवक तारो॥4॥

21. परिचय करुणा विनती। दादरा

राम, सुनहु न विपति हमारी हो, तेरी मूरति की बलिहारी हो॥टेक॥
मैं जु चरण चित चाहना, तुम सेवक साधारना॥1॥
तेरे दिनप्रति चरण दिखावणा, कर दया अंतर आवणा॥2॥
जन दादू विपति सुनावना, तुम गोविन्द तपत बुझावना॥3॥

22. परिचय-विनती प्रश्न। द्रुतताल

कौण भाँति भल मानैं गुसांई,
तुम भावे सो मैं जानत नाँही॥टेक॥
कै भल मानैं नाचे-गाये,
कै भल मानैं लोक रिझाये॥1॥
कै भल मानैं तीरथ न्हाये,
कै भल मानैं मूँड मुँडाये॥2॥
कै भल मानै सब घर त्यागी,
कै भल मानैं भये वैरागी॥3॥
कै भल मानै जटा बँधाये,
कै भल मानै भस्म लगाये॥4॥
कै भल मानै वन-वन डोलें,
कै भल मानै मुख हि न बोलें॥5॥
कै भल मानै जप-तप कीयें,
कै भल मानै करवत लीयें॥6॥
कै भल मानै ब्रह्म गियानी,
कै भल मानै अधिक धियानी॥7॥
जे तुम भावे सो तुम पै आहि,
दादू न जाणे कह समझाइ॥8॥

साखी से उत्तर-

दादू जे तूं समझे तो कहूँ, साँचा एक अलेख।
डाल पान तज मूल गहि, क्या दिखलावे भेख॥1॥
दादू सचु बिन सांई ना मिले, भावै भेष बणाइ।
भावै करवत उरध मुख, भावैं तीरथ जाइ॥2॥

23. परिचय विनती। द्रुतताल

अहो! गुण तोर, अवगुण मोर, गुसांई।
तुम कृत कीन्हा, सो मैं जानत नाँहीं॥टेक॥
तुम उपकार किये हरि केते, सो हम विसर गये।
आप उपाइ अग्नि मुख राखे, तहाँ प्रतिपाल भये हो गुसांई॥1॥
नख-शिख साज किये हो सजीवन, उदर आधार दिये।
अन्न पान जहाँ जाइ भस्म हो, तहँ तैं राखि लिये हो गुसांई॥2॥
दिन-दिन जान जतन कर पोखे, सदा समीप रहे।
अगम अपार किये गुन केते, कबहूँ नाँहिं कहे हो गुसांई॥3॥
कबहूँ नाँहीं न तुम तन चितवत, माया मोह परे।
दादू तुम तज जाइ गुसांई, विषया माँहिं जरे हो गुसांई॥4॥

24. उपदेश चेतावनी। एकताल

कैसे जीवियरे, सांई संग न पास,
चंचल मन निश्चल नहीं, निशि दिन फिरे उदास॥टेक॥
नेह नहीं रे राम का, प्रीति नहीं परकाश।
साहिब का समुमिरण नहीं, करे मिलन की आश॥1॥
जिस देखे तूं फूलियारे, पाणी पिंड बँधाणा मांस।
सो भी जल-बल, जाइगा, झूठा भोग विलास॥2॥
तो जीवी जे जीवणा, सुमरे श्वासै श्वास।
दादू परकट पिव मिले, तो अंतर होइ उजास॥3॥

25. हितोपदेश। चट्ताल

जियरा मेरे सुमिर सार, काम क्रोध मद तज विकार॥टेक॥
तूं जनि भूले मन गँवार, शिर भार न लीजे मान हार॥1॥
सुन समझायो बार-बार, अजहूँ न चेतै, हो हुसियार॥2॥
कर तैसे भव तिरिये पार, दादू अबतैं यही विचार॥3॥

(क) 26. भय चेतावनी। त्रिताल

जियरा चेत रे जनि जारै,
हेजैं हरि सौं प्रीति न कीन्ही। जनम अमोलक हारै॥टेक॥
बेर-बेर समझायो जियरा, अचेत न होइ गँवार रे।
यहु तन है कागद की गुड़िया, कछु एक चेत विचार रे॥1॥
तिल-तिल तुझ को हानि होत है, जे पल राम विसारे।
भय भरी दादू के जिय में, कहु कैसे कर डारे॥2॥

(ख) 26. पंजाबी त्रिताल

जियरा काहे रे मूढ डोले,
वन वासी लाला पुकारे, तुंहीं तुंहीं कर बोले॥टेक॥
साथ सवारी ले न गयोरे, चालण लागो बोले।
तब जाइ जियरा जाणेगो रे, बाँधे ही कोई खोले॥1॥
तिल-तिल माँहीं चेत चलीरे, पंथ हमारा तोले।
गहला दादू कछु न जाने, राखि ले मेरे मोलै॥2॥

27. अपर बल वैराग्य। त्रिताल

ता सुख को कहो क्या कीजे, जातैं पल-पल यहु तन छीजे॥टेक॥
आसण कुंजर शिर छत्र धरीजे, तातैं फिर-फिर दुःख सहीजे॥1॥
सेज सँवार सुन्दरि संग रमीजे, खाइ हलाहल भरम मरीजे॥2॥
बहु विधि भोजन मान रुचि लीजे, स्वाद संकट भरम पाश परीजे॥3॥
ये तज दादू प्राण पतीजे, सब सुख रसना राम रमीजे॥4॥

28. उपदेश। एकताल

मन निर्मल तन निर्मल भाई, आन उपाइ विकार न जाई॥टेक॥
जो मन कोयला तो तन कारा, कोटि करे नहिं जाइ विकारा॥1॥
जो मन विषहरि तो तन भुवंगा, करे उपाइ विषय पुनि संगा॥2॥
मन मैला तन उज्वल नाँहीं, बहु पचहारे विकार न जाँहीं॥3॥
मन निर्मल तन निर्मल होई, दादू साँच विचारे कोई॥4॥

29. उपदेश चेतावनी। त्रिताल

मैं-मैं करत सबै जग जावे, अजहूँ अंध न चेतेरे।
यह दुनिया सब देख दिवानी, भूल गये हैं केते रे॥टेक॥
मैं मेरे में भूल रहे रे, साजन सोई विसारा।
आया हीरा हाथ अमोलक, जन्म जुवा ज्यों हारा॥1॥
लालच लोभै लाग रहे रे, जानत मेरी मेरा।
आपहि आप विचारत नाँहीं, तूं काकी को तेरा॥2॥
आवत है सब जाता दीसे, इन मैं तेरा नाँहीं।
इन सौं लाग जनम जनि खोवे, शोध देख सचु माँहीं॥3॥
निश्चल सौ मन माने मेरा, सांई सौं वन आई।
दादू एक तुम्हारा साजन, जिन यहु भुरकी लाई॥4॥

30. उपदेश चेतावनी। त्रिताल

का जिवणा का मरणा रे भाई, जो तूं राम न रमसि अघाई॥टेक॥
का सुख सम्पत्ति छत्रपति राजा, वनखंड जाइ बसे किहिं काजा॥1॥
का विद्या गुण पाठ पुराणा, का मूरख जो तैं राम न जानां॥2॥
का आसन कर अह निशि जागे, का फिर सोवत राम न लागे॥3॥
का मुक्ता का बँधे होई, दादू राम न जानां सोई॥4॥

31. मन प्रबोध। पंजाबी त्रिताल

मन रे, राम बिना तन छीजे,
जब यहु जाय मिले माटी में, तब कहु कैसे कीजे॥टेक॥
पारस परस कंचन कर लीजे, सहज सुरति सुखदाई।
माया बेलि विषय फल लागे, तापर भूल न भाई॥1॥
जब लग प्राण पिंड है नीका, तब लग ताहि जनि भूले।
यह संसार सेमल के सुख ज्यों, तापर तूं जनि फूले॥2॥
अवसर येह जान जगजीवन, समझ देख सचु पावे।
अंग अनेक आन मत भूले, दादू जनि डहकावे॥3॥

32. मृगोक्ति उपदेश। झपताल

मोह्यो मृग देख वन अंधा, सूझत नहीं काल के फंधा॥टेक॥
फूल्यो फिरत सकल वन माँहीं, शिर साँधे शर सूझत नाँहीं॥1॥
उदमद मातो वन के ठाट, छाड चल्यौ सब बारह बाट॥2॥
फंध्यो न जाणे वन के चाइ, दादू स्वाद बँधाणो आइ॥3॥

33. मन प्रति उपदेश। निसारुक ताल

काहे रे मन राम विसारे, मानुष जन्मजाय जिय हारे॥टेक॥
माता-पिता को बंधु न भाई, सब ही स्वप्ना कहा सगाई॥1॥
तन धन योवन झूठा जाणी, राम हृदय धर सारंग प्राणी॥2॥
चंचल चित वित झूठी माया, काहे न चेते सो दिन आया॥3॥
दादू तन-मन झूठा कहिये, राम चरण गह काहे न रहिये॥4॥

34. मनुष्य देह माहात्म्य। झपताल

ऐसा जन्म अमोलक भाई, जामें आइ मिलैं राम राई॥टेक॥
जामें प्राण प्रेम रस पीवे, सदा सुहाग सेज सुख जीवे॥1॥
आत्मा आइ राम सौं राती, अखिल अमर धन पावे थाती॥2॥
परकट दरशन परसन पावे, परम पुरुष मिल माँहिं समावे॥3॥
ऐसा जन्म नहीं नर आवे, सो क्यों दादू रत्न गमावे॥4॥

35. परिचय सत्संग। दीपचन्दी ताल

सत्संगति मगन पाइये, गुरु प्रसादैं राम गाइये॥टेक॥
आकाश धरणि धरीजे, धरणी आकाश कीजे,
शून्य माँहिं निरख लीजे॥1॥
निरख मुक्ताहल माँहीं साइर आयो,
अपणे पीया हौं ध्यावत खोजत पायो॥2॥
सोच साइर अगोचर लहिये,
देय देहुरे माँहीं कवन कहिये॥3॥
हरि को हितारथ ऐसो लखे न कोई,
दादू जे पीव पावै अमर होई॥4॥

38. उपदेश चेतावणी। एकताल

कौण जनम कहँ जाता है,
अरे भाई राम छाड कहँ राता है॥टेक॥
मैं मैं मेरी इन सौं लाग, स्वाद पतंग न सूझे आग॥1॥
विषयों सौं रत गर्व गुमान, कुंजर काम बँधे अभिमान॥2॥
लोभ मोह मद माया फंध, ज्यों जल मीन न चेते अंध॥3॥
दादू यहु तन यों ही जाइ, राम विमुख मर गये विलाइ॥4॥

37. एकताल

मन मूरख तैं क्या कीया, कुछ पीव कारण वैराग न लीया।
रे तैं जप तप साधी क्या दीया॥टेक॥
रे तैं करवत काशी कद रह्या, रे तू गंगा माँहीं ना बह्या।
रे तैं विरहणि ज्यों दुख ना सह्या॥1॥
रे तूं पाले पर्वत ना गल्या, रे तैं आपही आपा ना दह्या।
रे तैं पीव पुकारीं कद कह्या॥2॥
होइ प्यासे हरि जल ना पिया, रे तूं वज्र न फाटो रे हिया।
धिक जीवन दादू ये जिया॥3॥

38. यतिताल

क्या कीजे मानुष जन्म को, राम न जपहिं गँवारा।
माया के मद मातो बहै, भूल रह्या संसारा॥टेक॥
हिरदै राम न आवई, आवे विषय विकारा रे।
हरि मारग सूझे नहीं, कूप परत नहिं बारा रे॥1॥
आप अग्नि जु आप में, तातैं अहनिशि जरे शरीरा रे।
भाव भक्ति भावे नहीं, पीवे न हरि जल नीरा रे॥2॥
मैं मेरी सब सूझई, सूझे माया जालो रे।
राम नाम सूझे नहीं, अंध न सूझे कालो रे॥3॥
ऐसे ही जन्म गमाइया, जित आया तित जाय रे।
राम रसायण ना पिया, जन दादू हेत लगाय रे॥4॥

39. परिचय वैराग्य। दादरा

इनमें क्या लीये क्या दीजे, जन्म अमोलक छीजे॥टेक॥
सोवत स्वप्ना होई, जागे तैं नहिं कोई।
मृगतृष्णा जल जैसा, चेत देख जग ऐसा॥1॥
बाजी भरम दिखावा, बाजीगर डहकावा।
दादू संगी तेरा, कोई नहीं किस केरा॥2॥

40. चेतावनी उपदेश। सिंह लील ताल

खालिक जागे जियरा सोवे, क्यों कर मेला होवे॥टेक॥
सेज एक नहिं मेला, तातैं प्रेम न खेला॥1॥
साँई संग न पावा, सोवत जन्म गमावा॥2॥
गाफिल नींद न कीजे, आयु घटे तन छीजे॥3॥
दादू जीव अयाना, झूठे भरम भुलाना॥4॥

41. पहरा (पंजाबी भाषा) राग जंगली गौड़ी। कहरवा ताल

पहले पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूं आया इहिं संसार वे।
मायादा रस पीवण लग्या, बिसरा सिरजनहार वे॥
सिरजनहारा बिसारा, किया पसारा, माता-पिता कुल नार वे।
झूठी माया, आप बँधाया, चेते नहीं गँवारा वे॥
गँवारा न चेते अवगुण केते, बंध्या सब परिवार वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तूं आया इहिं संसार वे॥1॥
दूजे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूं रत्ता तरुणी नाल वे।
माया-मोह फिर मतवाला, राम न सक्या सँभाल वे॥
राम न सँभाले, रत्ता नाले, अंध न सूझे काल वे।
हरि नहिं ध्याया, जन्म गमाया, दह दिशि फूटा ताल वे।
दह दिशि फूटा, नीर निखूटा, लेखा डेवण साल वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तूं रत्ता तरुणी नाल वे॥2॥
तीजे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तैं बहुत उठाया भार वे।
जो मन भाया, सो कर आया, ना कुछ किया विचार वे॥
विचार न किया, नाम न लीया, क्यों कर लंघे पार वे।
पार न पावे, फिर पछतावे, डूबण लग्गा धार वे॥
डूबन लग्गा, भेरा भग्गा, हाथ न आया सार वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तैं बहुत उठाया भार वे॥3॥
चौथे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूं पक्का हूवा पीर वे।
जौवन गया जरा वियापी, नाँहीं सुधि शरीर वे॥
सुधि ना पाई, रैणि गमाई, नैनों आया नीर वे।
भव जल भेरा डूबण लग्गा, कोई न बँधे धीर वे॥
कोइ धीर न बँधे, जम के फंदे, क्यों कर लंघे तीर वे।
दादू दास कहै बणिजारा, तू पक्का हूवा पीर वे॥4॥

42. काल चेतावनी? राग गौड़ी। पंजाबी त्रिताल

काहे रे नर करहु डफाँण, अन्त काल घर गोर मसाँण॥टेक॥
पहले बलवँत गये विलाइ, ब्रह्मा आदि महेश्वर जाइ॥1॥
आगैं होते मोटे मीर गये, छाड पैगम्बर पीर॥2॥
काची देह कहा गर्वाना, जे उपज्या सो सबै विलाना॥3॥
दादू अमर उपावनहार, आपहि आप रहै करतार॥4॥
43. उपदेश। पंजाबी त्रिताल

इत घर चोर न मूसे कोई, अंतर है जे जाणे सोई॥टेक॥
जागहु रे जन तत्त्व न जाई, जागत है सो रह्या समाई॥1॥
जतन-जतन कर राखहु सार, तस्कर उपजै कौन विचार॥2॥
इब कर दादू जाणैं जे, तो साहिब शरणांगति ले॥3॥

44. उपदेश चेतावनी। पंचमताल

मेरी-मेरी करत जग क्षीणा, देखत ही चल जावे।
काम क्रोध तृष्णा तन जाले, तातैं पार न पावे॥टेक॥
मूरख ममता जनम गमावे, भूल रहे इहिं बाजी।
बाजीगर को जाणत नाँहीं, जनम गमावे बादी॥1॥
प्रपंच पंच करै बहुतेरा, काल कुटुम्ब के ताँईं।
विष के स्वाद सबै ये लागे, तातैं चीन्हत नाँहीं॥2॥
येता जिय में जाणत नाँहीं, आइ कहाँ जल जावे।
आगे-पीछे समझे नाँहीं, मूरख यों डहकावे॥3॥
ये सब भरम भान भल पावे, शोध लेहु सो सांई।
सोई एक तुम्हारा साजन, दादू दूसर नाँहीं॥4॥

45. गर्व हानिकर। पंचम ताल

गर्व न कीजिए रे, गर्वै होइ विनास।
गर्वे गोविन्द ना मिलै, गर्वै नरक निवास॥टेक॥
गर्वै रसातल जाइये, गर्वै घारे अंधार।
गर्वै भव-जल डूबिये, गर्वै वार न पार॥1॥
गर्वै पार न पाइये, गर्वै जमपुर जाइ।
गर्वै को छूटे नहीं, गर्वै बँधे आइ॥2॥
गर्वै भाव न ऊपजे, गर्वै भक्ति न होइ।
गर्वै पिव क्यों पाइये, गर्व करे जनि कोइ॥3॥
गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार।
दादू गर्व न कीजिए, सन्मुख सिरजनहार॥4॥

46. हितोपदेश। नट ताल

हुसियार रहो, मन मारेगा, सांई सद्गुरु तारेगा॥टेक॥
माया का सुख भावेरे, मूरख मन बौरावे रे॥1॥
झूठ साँच कर जाना रे, इन्द्रिय स्वाद भुलाना रे॥2॥
दुःख को सुख कर माने रे, काल झाल नहिं जाने रे॥3॥
दादू कह समझावे रे, यहु अवसर बहुत न पावे रे॥4॥

47. विश्वास। नट ताल

साहिबजी सत मेरा रे, लोग झखैं बहुतेरा रे॥टेक॥
जीव जन्म जब पाया रे, मस्तक लेख लिखाया रे॥1॥
घटे बधे कुछ नाँहीं रे, कर्म लिख्या उस माँहीं रे॥2॥
विधाता विधि कीन्हा रे, सिरज सबन को दीन्हा रे॥3॥
समर्थ सिरजनहारा रे, सो तेरे निकट गँवारा रे॥4॥
सकल लोक फिर आवे रे, तो दादू दीया पावे रे॥5॥

48. राज विद्याधर ताल

पूरा रह्या परमेश्वर मेरा, अण मांग्या देवे बहुतेरा॥टेक॥
सिरजनहार सहज में देइ, तो काहे धाइ माँग जन लेइ॥1॥
विश्वम्भर सब जग को पूरे, उदर काज नर काहे झूरे॥2॥
पूरक पूरा है गोपाल, सबकी चिन्त करे दरहाल॥3॥
समर्थ सोई है जगन्नाथ, दादू देख रहे सँग साथ॥4॥

49. नाम विश्वास। राज मृगांक ताल

राम धन खात न खूटे रे,
अपरम्पार पार नंि आवे, आथिन टूटे रे॥टेक॥
तस्कर लेइ न पावक जाले, प्रेम न छूटे रे।
चहुँ दिशि पसरा बिन रखवाले, चोर न लूटे रे॥1॥
हरि हीरा है राम रसायण, सरस न सूखे रे॥2॥
दादू और आथि बहुतेरी, उस नर कूटे रे॥3॥

50. तत्त्व-उपदेश। राज मृगांक ताल

तूं है तूं है तूं है तेरा, मैं नहिं मैं नहिं मैं नहिं मेरा॥टेक॥
तूं है तेरा जगत् उपाया, मैं मैं मेरा धंधे लाया॥1॥
तूं है तेरा खेल पसारा, मैं मैं मेरा कहै गँवारा॥2॥
तूं है तेरा सब संसारा, मैं मैं मेरा तिन शिर भारा॥3॥
तूं है तेरा काला न खाइ, मैं मैं मेरा मर मर जाइ॥4॥
तूं है तेरा रह्या समाइ, मैं मैं मेरा गया विलाइ॥5॥
तूं है तेरा तुमहीं माँहिं, मैं मैं मेरा मैं कुछ नाँहिं॥6॥
तूं है तेरा तूं ही होइ, मैं मैं मेरा मिल्या न कोइ॥7॥
तूं है तेरा लंघै पार, दादू पाया ज्ञान विचार॥8॥

51. संजीवनी। पंचत ताल

राम विमुख जग मर-मर जाइ, जीवै संत रहै ल्यो लाइ॥टेक॥
लीन भये जे आतम रामा, सदा सजीवन कीये नामा॥1॥
अमृत राम रसायण पीया, तातैं अमर कबीरा, कीया॥2॥
राम-राम कह राम समाना, जन रैदास मिले भगवाना॥3॥
आदि-अन्त केते कलि जागे, अमर भये अविनासी लागे॥4॥
राम रसायन दादू माते, अविचल भये राम रँग राते॥5॥

52. पंचम ताल

निकट निरंजन लाग रहे, तब हम जीवित मुक्त भये॥टेक॥
मर कर मुक्ति जहाँ जग जाइ, तहाँ न मेरा मन पतिआइ॥1॥
आगे जन्म लहैं अवतारा, तहाँ न माने मना हमारा॥2॥
तन छूटे गगति जो पद होइ, मृतक जीव मिलै सब कोइ॥3॥
जीवित जन्म सफल कर जाना, दादू राम मिले मन माना॥4॥

53. हैरान प्रश्न। वर्ण भिन्न ताल

कादिर कुदरत लखी न जाइ, कहाँ तैं उपजै कहाँ समाइ॥टेक॥
कहाँ तैं कीन्ह पवन अरु पाणी, धरणि गगन गति जाइ न जाणी॥1॥
कहाँ तैं काया प्राण प्रकासा, कहाँ पंच मिल एक निवासा॥2॥
कहाँ तैं एक अनेक दिखावा, कहाँ तैं सकल एक ह्वै आवा॥3॥
दादू कुदरत बहु हैराना, कहाँ तैं राख रहे रहमाना॥4॥

साखी उत्तर की

रहै नियारा सब करे, काहू लिप्त न होइ।
आदि-अन्त भाने घड़े, ऐसा समर्थ सोइ॥21-30॥
श्रम नाँहीं सब कुछ करे, यों कल धरी बणाय।
कौतिकहारा ह्वै रह्या, सब कुछ होता जाय॥21-23॥
दादू शब्दैं बंध्या सब रहै, शब्दैं ही सब जाय।
शब्दैं ही सब ऊपजे, शब्दैं सबै समाय॥22-2॥

54. स्वरूप गति हैरान। वर्ण भिन्न ताल

ऐसा राम हमारे आवे, वार पार कोइ अंत न पावे॥टेक॥
हलका भारी कह्या न जाइ, मोल माप नहिं रह्या समाइ॥1॥
कीमत लेखा नहिं परिमाण, सब पचहारे साधु सुजाण॥2॥
आगो-पीछो परिमिति नाँहीं, केते पारिख आवहिं-जाँहीं॥3॥
आदि अन्त मधि कहै न कोइ, दादू देखे अचरज होइ॥4॥

55. प्रश्न। गज ताल

कौण शब्द कौण परखणहार, कौण सुरति कहु कौण विचार॥टेक॥
कौण सुजाता कौण गियान, कौण उन्मनी कौण धियान॥1॥
कौण सहज कहु कौण समाध, कौण भक्ति कहु कौण अराध॥2॥
कौण जाप कहु कौण अभ्यास, कौण प्रेम कहु कौण पियास॥3॥
सेवा कौण कहो गुरु देव, दादू पूछे अलख अभेव॥4॥

कौण शब्द?

दादू शब्द अनाहद हम सुन्या, नख-शिख सकल शरीर।
सब घट हरि-हरि होत है, सहजैं ही मन थीर॥4-173॥

कौण परखणहार?

प्राण जौहरी पारिखू, मन खोटा ले आवे।
खोटा मन के माथे मारे, दादू दूर उड़ावे॥27-21॥

कौण सुरति?

दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पार ब्रह्म के अंग।
अरस-परस मिल एक है, सन्मुख रहिबा संग॥7-26॥

कौण विचार?

सहज विचार मुख में रहे, दादू बड़ा विवेक।
मन इन्द्री पसरे नहीं, अन्तर राखे एक॥18-31॥

कौण सुज्ञाता?

दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलण की बूझे॥ शब्द 193॥

गौण गियान?

हंस गियानी सो भला, अंतर राखे एक।
विष में अमृत काढले, दादू बड़ा विवेक॥17-3॥

कौण उनमनी?

मन लवरू के पंख हैं, उनमनि चढे अकाश।
पग रह पूरे साँच के, रोप रह्या हरि पास॥4-348॥

कौण धियान?

जहँ विरहा तहँ और क्या? सुधि-बुधि नाठे ज्ञान।
लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान॥3-75॥

कौण सहज?

सहज रूप मन का भया, जब द्वै-द्वै मिटी तरंग।
ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग॥10-44॥

कौण समाधि?

सहज शून्य मन राखिए, इन दोनों के माँहिं।
लै समाधि रस पीजिए, तहाँ काल भय नाँहिं॥7-10॥

कौण भक्ति?

योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजैं-सहजैं आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव॥7-9॥

कौण अराध?

आतम देव अराधिये, विरोधिये नहिं कोय।
आराधे सुख पाइये, विरोधे दुःख होय॥29-23॥

कौण जाप?

सद्गुरु माला मन दिया, पवन सुरति सूं पोइ।
बिन हाथों निश दिन जपै, परम जाप यूँ होइ॥1-69॥

कौण अभ्यास?

दादू धरती ह्वै रहै, तज कूड़ कपट हंकार।
सांई कारण शिर सहै, ता को प्रत्यक्ष सिरजनहार॥23-3॥

कौण प्रेम?

प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आय।
दादू खेले पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाय॥4-278॥

कौण पियास?

कोई बाँछे मुक्ति फल, कोइ अमरा पुरि बास।
कोई बाँछे परम गति, दादू राम मिलण की प्यास॥8-81॥

सेवा कौण?

तेज पुंज को विलसणा, मिल खेलें इक ठाम।
भर-भर पीवे राम रस, सेवा इसका नाम॥4-274॥
आपा गर्व गुमान तज, मद मत्सर अहंकार।
गहै गरीबी बन्दगी, सेवा सिरजनहार॥23-5॥

सार मत कौण है?

आपा मेटे हरि भजे, तन-मन तजे विकार।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार॥29-2॥

56. प्रश्न। पंचम ताल

मैं नहिं जानूँ सिरजनहार, ज्यों है त्यों हि कहो तरतार॥टेक॥
मस्तक कहाँ-कहाँ कर जाइ, अविगत नाथ कहो समझाइ॥1॥
कहँ मुख नैना श्रवणा सांई, जानराइ सब कहो गुसांई॥2॥
पेट पीठ कहाँ है काया, पड़दा खोल हो गुरुराया॥3॥
ज्यों है त्यों कह अंतरयामी, दादू पूछे सद्गुरु स्वामी॥4॥

उत्तर की साखी

दादू सबै दिशा सो सारिखा, सबै दिशा मुख बैन।
सबै दिशा श्रवण हुँ सुने, सबै दिशा कर नैन॥4-214॥
सबै दिशा पग शीश है, सबै दिशा मन चैन।
सबै दिशा सन्मुख रहै, सबै दिशा अंग ऐन॥4-215॥

57. प्रश्न। पंजाबी त्रिताल

अलख देव गुरु देवु बताइ, कहाँ रहो त्रिभुवन पति राइ॥टेक॥
धरती-गगन बसहु कैलास, तिहुँ लोक में कहाँ निवास॥1॥
जल-थल पावक पवना पूर, चंद-सूर निकट कै दूर॥2॥
मंदिर कौण-कौण घर-बार, आसन कौण कहो करतार॥3॥
अलख देव गति लखी न जाइ, दादू पूछे कह समझाइ॥4॥

उत्तर की साखी

दादू मुझ ही माँहीं मैं रहूँ, मैं मेरा घर-बार।
मुझ ही माँहीं मैं बसूँ, आप कहै करतार॥4-210॥
दादू मैं ही मेरा अर्श में, मैं ही मेरा थान।
मैं ही मेरी ठौर में, आप कहै रहमान॥4-211॥
दादू मैं ही मेरे आसरे, मैं मेरे आधार।
तेरे तकिये मैं रहूँ, कहैं सिरजनहार॥4-212॥
दादू मैं ही मेरी जाति मैं, मैं ही मेरा अंग।
मैं ही मेरा जीव में, आप कहै परसंग॥4-213॥

58. रस। त्रिकाल

राम रस मीठा रे, पीवे साधु सुजाण।
सदा रस पीवे प्रेम सौं, सो अविनाशी प्राण॥टेक॥
इहिं रस मुनि लागे सबै, ब्रह्मा विष्णु महेश।
सुर नर साधु-संत जन, सो रस पीवे शेष॥॥
सिध साधक योगी यती, सती सबै शुकदेव।
पीवत अंत न आवही, ऐसा अलख अभेव॥2॥
इहिं रस राते नामदेव, पीया अरु रैदास।
पिवत कबीरा ना थक्या, अजहूँ प्रेम पियास॥3॥
यहु रस मीठा जिन पिया, सो रस ही माँहिं समाइ।
मीठे मीठा मिल रह्या, दादू अनत न जाय॥4॥

59. त्रिताल

मन मतवाला मधु पीवे, पीवे बारंबारो रे।
हरि रस मातो राम के, सदा रहै इकतारो रे॥टेक॥
भाव भक्ति भाटी भई, काया कसणी सारो रे।
पोता मेरे प्रेम का, सदा अखंडित धारो रे॥1॥
ब्रह्म अग्नि यौवन जरे, चेतन चितहि उजासो रे।
सुमति कलाली सारवे, कोइ पीवे विरला दासो रे॥2॥
प्रीति पियाले पीव ही, छिन-छिन बारंबारो रे।
आपा धन सब सौंपिया, तब रस पाया सारो रे॥3॥
आपा पर नहिं जाणिये, भूलो माया जाली रे।
दादू हरि रस जे पिवे, ताको कदे न लागे कालो रे॥4॥

60. पंचम ताल

रस के रसिया लीन भये, सकल शिरोमणि तहाँ गये॥टेक॥
राम रसायन अमृत माते, अविचल भये नरक नहिं जाते॥1॥
राम रसायण भर-भर पीवे, सदा सजीवन युग-युग जीवे॥2॥
राम रसायण त्रिभुवन सार, राम रसिक सब उतरे पार॥3॥
दादू अमली बहुत न आये, सुख सागर ता माँहिं समाये॥4॥

61. भेष। पंचम ताल

भेष न रीझे मेरा निज भरतार, ता तैं कीजे प्रीति विचार॥टेक॥
दुराचारिणी रचि भेष बनावे, शील साच नहिं पीव को भावे॥1॥
कंत न भावे करे शृंगार, डिंभपणैं रीझे संसार॥2॥
जो पै पतिव्रता ह्वै नारी, सो धन भावे पियहिं पियारी॥3॥
पिव पहचाने आन नहिं कोई, दादू सोई सुहागिनी होई॥4॥

62. विरह! घटताल

हम सब नारी एक भरतार, सब कोई तन करैं शृंगार॥टेक॥
घर-घर अपणे सेज सँवारैं, कंत पियारे पंथ निहारैं॥1॥
आरत अपणे पिव को धावैं, मिलै नाह कब अंग लगावैं॥2॥
अति आतुर ये खोजत डोलैं, बान परी वियोगिनि बोलैं॥3॥
सब हम नारी दादू दीन, दे सुहाग काहू सँग लीन॥4॥

63. आत्मार्थी भेष। घटताल

सोई सुहागिणि साँच शृंगार, तन-मन लाइ भजे भरतार॥टेक॥
भाव भक्ति प्रेम ल्यौ लावे, नारी सोइ सार सुख पावे॥1॥
सहज संतोष शील सब आया, तब नारी नाह अमोलक पाया॥2॥
तन-मन यौवन सौंप सब दीन्हा, तब कंत रिझाइ आप बस कीन्हा॥3॥
दादू बहुरि वियोग न होई, पिव सौं प्रीति सुहागिणि सोई॥4॥

64. समता। वर्ण भिन्न ताल

तब हम एक भये रे भाई, मोहन मिल साँची मति आई॥टेक॥
पारस परस भये सुखदाई, तब दुतिया दुर्गति दूर गमाई॥1॥
मलयागिरि मरम मिल पाया, तब बंस वरण कुल भरम गमाया॥2॥
हरि जल नीर निकट जब आया, तब बूँद-बूँद मिल सहज समाया॥3॥
नाना भेद भरम सब भागा, तब दादू एक रँगै रँग लाया॥4॥

65. वर्ण भिन्न ताल

अलह राम छूटा भ्रम मोरा,
हिन्दू-तुरक भेद कुछ नाँहीं, देखूँ दर्शन तोरा॥टेक॥
सोई प्राण पिंड पुनि सोई, सोई लोही माँसा।
सोई नैन नासिका सोई, सहजैं कीन्ह तमासा॥1॥
श्रवणों शब्द बाजता सुनिए, जिह्वा मीठा लागे।
सोई भूख सबन को व्यापे, एक युक्ति सोई जागे॥2॥
सोई संधि बंध पुनि सोई, सोई सुख सोई पीरा।
सोई हस्त पाँव पुनि सोई, सोई एक शरीरा॥3॥
यहु सब खेल खालिक हरि तेरा, तैं हि एक कर लीना।
दादू जुगति जान कर ऐसी, तब यहु प्राण पतीना॥4॥

66. नटताल

भाइ रे ऐसा पंथ हमारा,
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा, अवरण एक अधारा॥टेक॥
वाद-विवाद काहू सौं नाँहीं, माँहिं जगत् तैं न्यारा।
सम दृष्टी स्वभाव सहज में, आपहि आप विचारा॥1॥
मैं तैं मेरी यहु मति नाँहीं, निर्वैरी निराकार।
पूरण सबै देख आपा पर, निरालम्ब निराधारा॥2॥
काहू के संग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा।
मनहीं मन सौं समझ सयाना, आनंद एक अपारा॥3॥
काम कल्पना कदे न कीजे, पूरण ब्रह्म पियारा।
इहिं पथ पहुँच पार गह दादू, सो तत सहज संभारा॥4॥

67. परिचय हैरान। नटताल

ऐसो खेल बण्यो मेरी माई, कैसे कहूँ कुछु जाण्यो न जाई॥टेक॥
सुर-नर मुनि जन अचरज आई, राम चरण को भेद न पाई॥1॥
मन्दिर माँहीं सुरति समाई, कोऊ है सो देहु दिखाई॥2॥
मनहिं विचार करहु ल्यौ लाई, दिवा समान कहँ ज्योति छिपाई॥3॥
देह निरंतर शून्य ल्यौ लाई, तहँ कौण रमे कौण सूता रे भाई॥4॥
दादू न जाणे ये चतुराई, सोई गुरु मेरा जिन सुधि पाई॥5॥

68. निज घर परिचय। पंचम ताल

भाई रे घ्ज्ञर ही में घर पाया,
सहज समाइ रह्यो ता माँहीं, सद्गुरु खोज बताया॥टेक॥
ता घर काज सबै फिर आया, आपै आप लखाया।
खोल कपाट महल के दीन्हें, थिर सुस्थान दिखाया॥1॥
भय औ भेद, भरम सब भागा, साँच सोइ मन लागा।
पिंड परे जहाँ जिव जावे, ता में सहज समाया॥2॥
निश्चल सदा चले नहिं कबहूँ, देख्या सबमें सोई।
ता ही सौं मेरा मन लागा, और न दूजा कोई॥3॥
आदि अनन्त सोइ घर पाया, अब मन अनत न जाई।
दादू एक रँगै रँग लागा, ता में रह्या समाई॥4॥

69. मानस तीर्थ। पंचम ताल

इत है नीर नहाँवण जोग, अनतहि भ्रम भूला रे लोग॥टेक॥
तिहिं तट न्हाये निर्मल होइ, वस्तु अगोचर लखे रे सोइ॥1॥
सुघट घाट अरु तिरबो तीर, बैठे तहाँ जगत् गुरु पीर॥2॥
दादू न जाणे तिन का भेव, आप लखावे अंतर देव॥3॥

70. पंजाबी त्रिताल

ऐसा ज्ञान कथो नर ज्ञानी, इहिं घर होइ सहज सुख जानी॥टेक॥
गंग-जमुन तहँ नीर नहाइ, सुषमन नारी रंग लगाइ॥1॥
आप तेज तन रह्यो समाइ, मैं बलि ताकी देखूँ अघाइ॥2॥
बास निरंतर सो समझाइ, बिन नैनहुँ देख तहँ जाइ॥3॥
दादू रे यह अगम अपार, सो धन मेरे अधर अधार॥4॥

71. परिचय सत्संग। पंजाबी त्रिताल

अब तो ऐसी बण आई, राम चरण बिन रह्यो न जाई॥टेक॥
सांई को मिलबे के कारण, त्रिकुटी संगम नीर नहाई।
चरण कमल की तहँ ल्यौ लागे, जतन-जतन कर प्रीति बनाई॥1॥
जे रस भीना छावर जावे, सुन्दरि सहजैं संग समाई।
अनहद बाजे बाजण लागे, जिह्वा हीणैं कीरति गाई॥2॥
कहा कहूँ कुछ वरणि न जाई, अविगत अंतर ज्योति जगाई।
दादू उनका मरम न जाणे, आप सुरंगे बैन बजाई॥3॥

72. राज मृगांक ताल

नीके राम कहत है बपुरा,
घर माँहीं घर निर्मल राखे, पंचों धोवे काया कपरा॥टेक॥
सहज समर्पण सुमिरण सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकरा॥1॥
बिन रसना मोहन गुण गावे, नाना वाणी अनुभव अपरा।
दादू अनहद ऐसे कहिए, भक्ति तत्त्व यहु मारग सकरा॥2॥

73. मनसा गायत्री। राज मृगांक ताल

अवध कामधेनु गह राखी,
वश कीन्ही तब अमृत सरवैं, आगे चार न नाखी॥टेक॥
पोषंतां पहली उठ गरजे, पीछे हाथ न आवे।
भूखी भले दूध नित दूणाँ, यों या धेनु दुहावे॥1॥
ज्यों-ज्यों क्षीण पड़े त्यों दूझे, मुकता मेल्याँ मारे।
घाटा रोक घेर घर आणैं, बाँधी कारज सारे॥2॥
सहजैं बाँधी कदे न छूटे, कर्म बंधन छूट जाई।
काटे कर्म सहज सौं बाँधे, सहजैं रहै समाई॥3॥
छिन-छिन माँहिं मनोरथ पूरे, दिन-दिन होई अनंदा।
दादू सोई देखतां पावे, कलिअजरावर कंदा॥4॥

74. परिचय। कहरवा

जब घट परगट राम मिले,
आतम मंगल चार चहूँ दिशि, जनम सफल कर जीत चले॥टेक॥
भक्ति मुक्ति अभय कर राखे, सकल शिरोमणि आप किये।
निर्गुण राम निरंजन आपै, अजरावर उर लाइ लिये॥1॥
अपणे अंग-संग कर राखे, निर्भय नाम निशान बजावा।
अविगत नाथ अमर अविनाशी, परम पुरुष निज सो पावा॥2॥
सोई बड़ भागी सदा सुहागी, परगट प्रीतम संग भये।
दादू भाग बड़े वर-वर कर, सो अजरावर जीत गये॥3॥

75. परा भक्ति प्रार्थना। कहरवा

रमैया यहु दुख साले मोहि,
सेज सुहाग न प्रीति प्रेम रस, दरशन नाँहीं तोहि॥टेक॥
अंग प्रसंग एक रस नाँहीं, सदा समीप न पावे।
ज्यों रस में रस बहुर न निकसे, ऐसे होइ न आवे॥1॥
आतम लीन नहीं निशि वासर, भक्ति अखंडित सेवा।
सन्मुख सदा परस्पर नाँहीं, तातैं दुःख मोहि देवा॥2॥
मगन गलित महारस माता, तूं है तब लग पीजे।
दादू जब लग अंत न आवे, तब लग देखा दीजे॥3॥

76. लांबी (अधीरता, अस्थिरता) दादरा

गुरुमुख पाइये रे ऐसा ज्ञान विचार,
समझ-समझ समझ्या नहीं, लागा रंग अपार॥टेक॥
जाँण-जाँण जाँण्या नहीं, ऐसी उपजे आय।
बूझ-बूझ बुझ्या नहीं, ढोरी लागा जाय॥1॥
ले ले ले लीया नहीं, हौंस रही मन माँहिं।
राख राख राख्या नहीं, मैं रस पीया नाँहिं॥2॥
पाय-पाय पाया नहीं, तेजैं तेज समाय।
कर-कर कुछ कीया नहीं, आतम अंग लगाय॥3॥
खेल-खेल खेल्या नहीं, सन्मुख सिरजनहार।
देख-देख देख्या नहीं दादू सेवक सार॥4॥

77. गुरु अधीन ज्ञान। दादरा।

बाबा गुरुमुख ज्ञाना रे, गुरुमुख ध्याना रे॥टेक॥
गुरुमुख दाता, गुरुमुख राता, गुरुमुख गवना रे।
गुरुमुख भवना, गुरुमुख छवना, गुरुमुख रवना रे॥1॥
गुरुमुख पूरा, गुरुमुख शूरा, गुरुमुख वाणी रे।
गुरुमुख देणा, गुरुमुख लेणा, गुरुमुख जाणी रे॥2॥
गुरुमुख गहिबा, गुरुमुख रहिबा, गुरुमुख न्यारा रे।
गुरुमुख सारा, गुरुमुख तारा, गुरुमुख पारा रे॥3॥
गुरुमुख राया, गुरुमुख पाया, गुरुमुख मेला रे।
गुरुमुख तेजं, गुरुमुख सेजं, दादू खेला रे॥4॥

78. निज स्थान निर्णय। दीपचन्दी

मैं मेरे में हेरा, मध्य माँहिं पिव नेरा॥टेक॥
जहँ अगम अनूप अवासा, तहँ महापुरुष का वासा।
तहँ जाणेगा जन कोई, हरि माँहिं समाना सोई॥1॥
अखंड ज्योति जहँ जागे, तहँ राम नाम ल्यौ लागे।
तहँ राम रहै भर पूरा, हरि संग रहै नहिं दूरा॥2॥
तिरवेणी तट तीरा, तहँ अमर अमोलक हीरा।
उस हीरे सौं मन लागा, तब भरम गया भय भागा॥3॥
दादू देख हरि पावा, हरि सहजैं संग लखाया।
पूरण परम निधाना, निज निरखत ही भगवाना॥4॥

79. दीपचन्दी

मेरा मन लागा सकल करा, हम निश दिन हिरदै सो धरा॥टेक॥
हम हिरदै माँहीं हेरा, पवि परगट पाया नेरा।
सो नेर ही निज लीजे, तब सहजैं अमृत पीजे॥1॥
जब मन ही सौं मन लागा, तब ज्योति स्वरूपी जागा।
जब ज्योति स्वरूपी पाया, तब अंतर माँहिं समाया॥2॥
जब चित्त हि चित्त समाना, हम हरि बिन और न जाना।
जाना जीवण सोई, अब हरि बिन और न कोई॥3॥
जब आतम एकै बासा, परमातम माँहिं प्रकाशा।
परकाशा पीव पियारा, सो दादू मींत हमारा॥4॥

॥इति राग गौड़ी सम्पूर्ण॥श