भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अथ राग टोडी (तोडी) / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अथ राग टोडी (तोडी)

(गायन समय दिन 6 से 12)

269. सुमिरण उपदेश। राज मृगांक ताल

सो तत्त्व सहजैं सुषुमन कहणा,
साँच पकड़ मन युग-युग रहणा॥टेक॥
प्रेम प्रीति कर नीका राखे,
बारंबार सहज नर भाखे॥1॥
मुख हिरदय सो सहज सँभारे,
तिहिं तत्त्व रहणा कदे न विसारे॥2॥
अंतर सोई नीका जाणे,
निमष न बिसरे ब्रह्म बखाणे॥3॥
सोइ सुजाण सुधा रस पीवे,
दादू देख जुगे जुग जीवे॥4॥

270. नाम महिमा। राज मृगांक ताल

नाम रे नाम रे,
सकल शिरोमणि नाम रे, मैं बलिहारी जाउँ रे॥टेक॥
दुस्तर तारे पार उतारे, नरक निवारे नाम रे॥1॥
तारणहारा भव जल पारा, निर्मल सारा नाम रे॥2॥
नूर दिखावे तेज मिलावे, ज्योति जगावे नाम रे॥3॥
सब सुख दाता अमृत राता, दादू माता नाम रे॥4॥

271. केवल विनती। राजविद्याधर ताल

राय रे राय रे,
सकल भुवन पति राय रे, अमृत देहु अघाइ रे राय॥टेक॥
परकट राता परकट माता, परकट नूर दिखाइ रे राय॥1॥
सुस्थिर ज्ञाना सुस्थिर ध्याना, सुस्थिर तेज मिलाइ रे राय॥2॥
अविचल मेला अविचल खेला, अविचल ज्योति जगाइ रे राय॥3॥
निश्चल बैना निश्चल नैना, दादू बलि-बलि जाइ रे राय॥4॥

272. रसिक अवस्था। सवारी ताल

हरि रस माते मगन भये,
सुमिर-सुमिर भये मतवाले, जामण मरण सब भूल गये॥टेक॥
निर्मल भक्ति प्रेम रस पीवै, आन न दूजा भाव धरै।
सहजैं सदा राम रंग राते, मुक्ति वैकुण्ठ कहा करै॥1॥
गाइ-गाइ रस लीन भये हैं, कछू न माँगै संत जना।
और अनेक देहु दत आगै, आन न भावे राम बिना॥2॥
इक टक ध्यान रहै ल्यौ लागे, छाक परे हरि रस पीवै।
दादू मग्न रहै रस माते, ऐसे हरि के जन जीवै॥3॥

273. केवल विनती। सवारी ताल

ते मैं कीधेला राम जे तैं वार्या ते,
मारग मेल्ही, अमारग अणसरिये अकरम करम हरे॥टेक॥
साधु को संग छाडी ने, असंगति अणसरियाँ।
सुकृत मूकी अविद्या साधी, विषिया विस्तरियाँ॥1॥
आन कह्युँ आन सांभल्युँ, नेणे आन दीठो।
अमृत कड़वो विष्ज्ञ इम लागो, खातां अति मीठो॥2॥
राम हृदाथी बिसारी ने, माया मन दीधो।
पाँचो प्राण गुरुमुख वरज्या, ते दादू कीधो॥3॥

274. केवल विनती। त्रिताल

कहो क्यों जन जीवे सांइयाँ, दे चरण कमल आधार हो।
डूबत है भव-सागराँ, कारी करो करतार हो॥टेक॥
मीन मरे बिन पाणियाँ, तुम बिन यही विचार हो।
जल बिन कैसे जीव ही, अब तो किती इक बार हो॥1॥
ज्यों परे पतंगा ज्योति में, देख-देख निज सार हो।
प्यासा बूँद न पाव ही, तब वन-वन करे पुकार हो॥2॥
निश दिन पीकर पुकार ही, तन की ताप निवार हो।
दादू विपति सुनाव ही, कर लोचन सन्मुख चार हो॥3॥

275. केवल विनती। त्रिताल

तूं साँचा साहिब मेरा,
कर्म करीम कृपालु निहारो, मैं जन बंदा तेरा॥टेक॥
तुम दीवान सबहिन की जानो, दीनानाथ दयाला।
दिखाइ दीदार मौज बंदे को, कायम करो निहाला॥1॥
मालिक सबै मुलिक के सांई, समर्थ सिरजनहारा।
खैर खुदाइ खलक में खेलत, दे दीदार तुम्हारा॥2॥
मैं शिकस्तः दरगह तेरी, हरि हजूर तूं कहिए।
दादू द्वारे दीन पुकारे, काहे न दर्शन लहिए॥3॥

276. उपदेश चेतावनी। मकरन्द ताल

कुछ चेत रे कहि क्या आया,
इनमें बैठा फूल कर, तैं देखी है माया॥टेक॥
तूं जिन जाने तन-धन मेरा, मूरख देख भुलाया।
आज काल चल जावे देही, ऐसी सुन्दर काया॥1॥
राम नाम निज लीजिए, मैं कहि समझाया।
दादू हरि की सेवा कीजे, सुन्दर साज मिलाया॥2॥

277. मकरन्द ताल

नेटि रे माटी में मिलना, मोड़-मोड़ देह काहे को चलना॥टेक॥
काहे को अपणा मन डुलावे, यहु तन अपणा नीका धरणा।
कोटि वर्ष तूं काहे न जीवे, विचार देख आगै है मरणा॥1॥
काहे न अपणी बाट सँवारे, संयम रहणा सुमिरण करणा।
गहला दादू गर्व न कीजे, यहु संसार पंच दिन भरणा॥2॥

278. ब्रह्म योग ताल

जाय रे तन जाय रे,
जन्म सुफल कर लेहु राम रमि, सुमिर-सुमिर गुण गाय रे॥टेक॥
नर नारायण सकल शिरोमणि, जन्म अमोलक आहि रे।
सो तन जाय जगत् नहिं जाणे, सकहि तो ठाहर लाइ रे॥1॥
जुरा काल दिन जाइ गरासे, तासौं कछु न बसाय रे।
छिन-छिन छीजत जाय मुग्ध नर, अंत काल दिन आय रे॥2॥
प्रेम भक्ति साधु की संगति, नाम निरन्तर गाय रे।
जे शिर भाग तो सौंज सफल कर, दादू विलम्ब न लाय रे॥3॥

279. त्रिताल

काहे रे बक मूल गमावे, राम के राम भले सचु पावे॥टेक॥
वाद-विवाद न कीजे लोई, वाद-विवाद न हरि रस होई॥1॥
भैं तैं मेरी माने नाँहीं, मैं तैं मेट मिले हरि माँहीं॥2॥
हार-जीत सौं हरि रस जाई, समझ देख मेरे मन भाई॥3॥
मूल न छाड़ी दादू बौरे, जिन भूले तूं बकबे औरे॥4॥

280. त्रिताल

हुसियार हाकिम न्याय है, सांई के दीवान।
कुल का हिसाब होगा, समझ मूसलमान॥टेक॥
नीयत नेकी सालिकां, रास्ता ईमान।
इखलास अंदर आपणे, रखणाँ सुबहान॥1॥
हुक्म हाजिर होइ बाबा, मुसल्लम महरबान।
अक्ल सेती आपणा, शोध लेहु सुजाण॥2॥
हक सौं हजूरि हूंणा, देखणा कर ज्ञान।
दोस्त दाना दीन का, मानणा फुरमान॥3॥
गुस्सा हैवानी दूर कर, छाड दे अभिमान।
दुई दरोगाँ नाँहिं खुशियाँ, दादू लेहु पिछान॥4॥

281. साधु प्रति उपदेश। ललित ताल

निर्पख रहणा राम-राम कहणा, काम-क्रोध में देह न दहणा॥टेक॥
जेणें मारण संसार जायला, तेणे प्राणी आप बहायला॥1॥
जे-जे करणी जगत् करीला, सो करणी संत दूर धरीला॥2॥
जेणें पंथैं लोक राता, तेणें पंथैं साधु न जाता॥3॥
राम-राम दादू ऐसे कहिए, राम रमत रामहि मिल रहिए॥4॥

282. भेष बिडंवन। ललित ताल

हम पाया हम पाया रे भाई, भेष बनाय ऐसी मन आई॥टेक॥
भीतर का यहु भेद न जाणे, कहै सुहागिणि क्यों मन माने॥1॥
अंतर पीव सौं परिचय नाँहीं, भई सुहागिणि लोकन माँहीं॥2॥
सांई स्वप्ने कबहुँ न आवे, कहबा ऐसे महल बुलावे॥3॥
इन बातन मोहि अचरज आवे, पटम किये कैसे पिव पावे॥4॥
दादू सुहागिणि ऐसे कोई, आपा मेट राम रत होई॥5॥

283. आत्मा समता। उत्सव ताल

ऐसे बाबा राम रमीजे, आतम सौं अंतर नहिं कीजे॥टेक॥
जैसे आतम आपा लेखे, जीव-जन्तु ऐसे कर पेखे॥1॥
एक राम ऐसे कर जाणे, आपा पर अंतर नहिं आणे॥2॥
सब घट आतम एक विचारे, राम सनेही प्राण हमारे॥3॥
दादू साँची राम सगाई, ऐसा भाव हमारे भाई॥4॥

284. नाम समता। उत्सव ताल

माधइयो-माधइयो मीठो री माइ, माहवो-माहवो, भेटियो आइ॥टेक॥
कान्हइयो-कान्हइयो करताँ जाइ, केशवो-केशवो केशवो धाइ॥1॥
भूधरो भूधरो भूधरो भाइ, रमैयो रमैयो रह्यो समाइ॥2॥
नरहरि नरहरि राइ, गोविन्दो गोविन्दो दादू गाइ॥3॥

285. समता। वसंत ताल

एकहीं एकैं भया अनंद, एकहीं एकैं भागे द्वन्द्व॥टेक॥
एकहीं एकैं एक समान, एकहीं एकैं पद निर्वान॥1॥
एकहीं एकैं त्रिभुवन सार, एकहीं एकैं अगम अपार॥2॥
एकहीं एकैं नर्भय होइ, एकहीं एकैं काल न कोइ॥3॥
एकहीं एकैं घट परकाश, एकहीं एकैं निरंजन वास॥4॥
एकीं एकैं आपहि आप, एकहीं एकैं माइ न बाप॥5॥
एकहीं एकैं सहज स्वरूप, एकहीं एकैं भये अनूप॥6॥
एकहीं एकैं अनत न जाइ, एकहीं एकैं भये अनूप॥6॥
एकहीं एकैं अनत न जाइ, एकहीं एकैं रह्या समाइ॥7॥
एकहीं एकैं भये लै लीन, एकहीं एकैं दादू दीन॥8॥

286. विनती। वसंत ताल

आदि है आदि अनादि मेरा, संसार सागर भक्ति भेरा।
आदि है अंत है अंत है आदि है, बिड़द तेरा॥टेक॥
काल है झाल है झाल है काल है, राखिले प्राण घेरा।
जीव का जन्म का, जन्म का जीव का, आपही आपले भान झेरा॥1॥
भ्रम का कर्म का कर्म का भ्रम का, आइबा-जाइबा मेट फेरा।
तारले पारले पारले तारले, जीवसौं शिव है निकट नेरा॥2॥
आत्मा राम है, राम है आत्मा, ज्योति है युक्ति सौं करो मेला।
तेज है सेज है, सेज है तेज है, एक रस दादू खेल खेला॥3॥

287. परिचय। कोकिल ताल

सुन्दर राम राया, परम ज्ञान परम ध्यान, परम प्राण आया॥टेक॥
अकल सकल अति अनूप, छाया नहिं माया।
निराकार निराधार, वार पार न पाया॥1॥
गंभीर धीर निधि शरीर, निर्गुण निरकारा।
अखिल अमर परम पुरुष, निर्मल निज सारा॥2॥
परम नूर परम तेज, परम ज्योति प्रकाशा।
परम पुंज परापरं, दादू निज दासा॥3॥

288. परिचय पराभक्ति। कोकिल ताल

अखिल भाव अखिल भक्ति, अखिल नाम देवा।
अखिल प्रेम अखिल प्रीति, अखिल सुरति सेवा॥टेक॥
अखिल अंग अखिल संग, अखिल रंग रामा।
अखिलारत अखिलामत अखिला निज नामा॥1॥
अखिल ज्ञान अखिल ध्यान, अखिल आनन्द कीजे।
अखिला लै अखिला मैं, अखिला रस पीजे॥2॥
अखिल मगन अखिल मुदित, अखिल गलित सांई।
अखिल दरश अखिल परस, दादू तुम माँहीं॥3॥

॥इति राग टोडी (तोडी) सम्पूर्ण॥