अथ राग देवगांधार / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ राग देवगांधार
(गायन समय प्रातः 6 से 9)
254. विनती अनन्यशरण। त्रिताल
शरण तुम्हारी आइ परे,
जहाँ-तहाँ हम सब फिर आये, राखि-राखि हम दुखित खरे॥टेक॥
कस-कस काया तप व्रत कर कर, भ्रमत-भ्रमत हम भूल परे।
कहुँ शीतल कहुँ तप्त दहे तन, कहुँ हम करवत शीश धरे॥1॥
कहुँ वन तीरथ फिर-फिर थाके, कहँ गिरि पर्वत जाइ चढ़े।
कहुँ शिखर चढ परे धरणि पर, कहुँ हति आपा प्राण हरे॥2॥
अंध भये हम निकट न सूझे, तातैं तुम तजि जाइ जरे।
हा-हा हरि अब दीन लीन कर, दादू बहु अपराध भरे॥3॥
255. पतिव्रत उपदेश। त्रिताल
बौरी तूं बार-बार बौरानी,
सखीसुहाग न पावे ऐसे, कैसे भरम भुलानी॥टेक॥
चरणों चेरी चित नहिं राख्यो, पतिव्रत नाहिं न जान्यों।
सुन्दरि सेज संग नहिं जानैं, पीव सौं मन नहिं मान्यों॥1॥
तन-मन सबै शरीर न सौंप्यो, शीश नाइ नहिं ठाढ़ी।
इक रस प्रीति रही नहिं कबहुँ, प्रेम उमंग न बाढी॥2॥
प्रीतम अपणों परम सनेही, नैन निरख न अघानी।
निशि वासर आनि उर अंतर, परम पूज्य नहिं जानी॥3॥
पतिव्रत आगे जिन-जिन पाल्यो, सुन्दरि तिन सब छाजे।
दादू पिव बिन और न जानैं, ताहि सुहाग विराजै॥4॥
256. उपदेश चेतावनी। रंगताल
मन मूरखा! तैं योंही जन्म गमायो,
सांई केरी सेवा न कीन्हीं, इहि कलि काहे का आयो॥टेक॥
जिन बातन तेरा छूटक नाँहीं, सोइ मन तेरे भायो।
कामी ह्वै विषया संग लागो, रोम-रोम लपटायो॥1॥
कुछ इक चेत विचारी देखो, कहा पाप जिय लायो।
दादू दास भजन कर लीजे, स्वप्ने जग डहकायो॥2॥
॥इति राग देवगांधार सम्पूर्ण॥