अथ राग धनाश्री / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ राग धनाश्री
(गायन समय दिन 3 से 6)
414. अमिट अविनाशी रंग। धीमा ताल
रँग लागो रे राम को, सो रँग कदे न जाई रे।
हरि रँग मेरो मन रँयो, और न रँग सुहाई रे॥टेक॥
अविनाशी रँग ऊपनो, रच मच लागो चौलो रे।
सो रँग सदा सुहावणो, ऐसो रँग अमोलो रे॥1॥
हरि रँग कदे न ऊतरे, दिन-दिन होइ सुरंगों रे।
नित नवो निर्वाण है, कदे न ह्वैला भंगो॥2॥
साँचो रँग सहजैं मिल्यो, सुन्दर रंग अपारो रे।
भाग बिना क्यों पाइए, सब रँग माँही सारो रे॥3॥
अवरण को का वरणिए, सो रँग सहज स्वरूपो रे।
बलिहारी उस रंग की, जन दादू देख अनूपो रे॥4॥
415. धीमा ताल
लाग रह्यो मन राम सौं, अब अनतैं नहिं जाये रे।
अचला सौं थिर ह्वै रह्यो, सके न चित्त डुलाये रे॥टेक॥
ज्यों फनींद्र चंदन रहै, परिमल रहै लुभाये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, अब की बेर अघाये रे॥1॥
भँवर न छाडे वास को, कमल हि रह्यो बँधाये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, वेध रह्यो चित लाये रे॥2॥
जल बिन मीन न जीव ही, विछुरत ही मर जाये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, ऐसी प्रीति बनाये रे॥3॥
ज्यों चातक जल को रटे, पिव-पिव करत बिहाये रे।
त्यों मन मेरा राम सौं, जन दादू हेत लगाये रे॥4॥
416. विनती। वीर विक्रम ताल
मन मोहन हो! कठिन विरह की पीर, सुन्दर दर्श दिखाइए॥टेक॥
सुनहु न दीनदयाल, तव मुख बैन सुनाइए॥1॥
करुणामय कृपाल, सकल शिरोमणि आइए॥2॥
मम जीवन प्राण अधार, अविनाशी उर लाइए॥3॥
अब हरि दर्शन देहु, दादू प्रेम बढ़ाइए॥4॥
417. वीर विक्रम ताल
कतहूँ रहे हो विदेश, हरि नहिं आये हो।
जन्म सिरानों जाइ, पीव नहिं पाये हो॥टेक॥
विपति हमारी जाइ, हरि सौं को कहै हो।
तुम बिन नाथ अनाथ, विरहणि क्यों रहै हो॥1॥
पीव के विरह वियोग, तन की सुधि नहीं हो।
तलफि-तलफि जीव जाइ, मृतक ह्वै रही हो॥2॥
दुखित भई हम नारि, कब हरि आवे हो।
तुम बिन प्राण अधार, जीव दुःख पावे हो॥1॥
प्रगटहु दीनदयाल, विलम्ब न कीजिए हो।
दादू दुखी बेहाल, दर्शन दीजिए हो॥4॥
418. रंग ताल
सुरजन मेरा वे! कीहै पार लहाँउँ।
जे सुरजन घर आवै वे, हिक कहाण कहाँउँ॥टेक॥
तो बाझें मेकौं चैन न आवे, ये दुःख कींह कहाँउँ।
तो बाझें मेकौं नींद न आवै, अँखियाँ नीर भराउँ॥1॥
ते तू मेकौं सुरजन डेवै, सो हौं शीश सहाँउँ।
ये जन दादू सुरजन आवै, दरगह सेव कराँउँ॥2॥
419. रंग ताल
मोहन माधव कब मिलें, सकल शिरोमणि राइ।
तन मन व्याकुल होत है, दर्श दिखाओ आइ॥टेक॥
नैन रहे पथ जोवताँ, रोवत रैनि बिहाइ।
बाल सनेही कब मिलें, मो पैं रह्या न जाइ॥1॥
छिन-छिन अंग अनल दहै, हरिजी कब मिल हैं आइ।
अन्तर्यामी जानकर, मेरे तन की तप्त बुझाइ॥2॥
तुम दाता सुख देत हो, हाँ हो सुन दीन दयाल।
चाहैं नैन उतावले, हाँ हो कब देखूँ लाल॥3॥
चरण कमल कब देखिहौं, हाँ हो सन्मुख सिरजनहार।
सांई संग सदा रहौ, हाँ हो तब भाग हमार॥4॥
जीवनि मेरी जब मिले, हाँ हो तब ही सुख होइ।
तन-मन में तूं ही बसे, हाँ हो कब देखूँ सोइ॥5॥
तन-मन की तूं ही लखे, हाँ हो सुन चतुर सुजान।
तुम देखे बिन क्यों रहौ, हाँ हो मोहि लागे बान॥6॥
बिन देखे दुःख पाइए, हाँ हो अब विलम्ब न लाइ।
दादू दर्शन कारणे, हाँ हो सुख दीजे आइ॥7॥
420. वैराग्य। वर्णभिन्न ताल
ये खूहि पये सब भोग विलासन, तैसहु बाकौ छत्र सिंहासन॥टेक॥
जन तिहुँरा बहिश्त नहिं भावे, लाल पिलंग क्या कीजे।
भाहि लगे इह सेज सुखासन, मेकौं देखण दीजे॥1॥
वैकुण्ठ मुक्ति स्वर्ग क्या कीजे, सकल भुवन नहिं भावे।
भट्ठ पयें सब मंडप छाजे, जे घर कन्त न आवे॥2॥
लोक अनन्त अभय क्या कीजे, मैं विरही जन तेरा।
दादू दर्शन देखण दीजे, ये सुण साहिब मेरा॥3॥
421. ईमान साहिब (राम काफी) राजमृगांक ताल
अल्लह आशिकाँ ईमान,
बहिश्त दोजख दीन दुनियाँ, चे कारे रहमान॥टेक॥
मीर मीरी पीर पीरी, फरिश्तः फरमान।
आब आतिश अर्श कुर्सी, दीदनी दीवान॥1॥
हरदो आलम खलक खाना, मोमिना इसलाम।
हजा हाजी कजा काजी, खान तू सुलतान॥2॥
इल्म आलम मुल्क मालुम, हाजते हैरान।
अजब यारां खबरदारां, सूरते सुबहान॥3॥
अव्वल आखिर एक तू ही, जिन्द है कुरबान।
आशिकां दीदार दादू, नूर का नीशान॥4॥
422. विरह विनती (राग काफी) वर्णभिन्न ताल
अल्लह तेरा जिकर फिकर करते हैं,
आशिकां मुश्ताक तेरे, तर्स-तर्स मरते हैं॥टेक॥
खलक खेश दिगर नेस्त, बैठे दिन भरते हैं।
दायम दरबार तेरे, गैर महल डरते हैं॥1॥
तन शहीद मन शहीद, रात-दिवस लड़ते हैं।
ज्ञान तेरा ध्यान तेरा, इश्क आग जलते हैं॥2॥
जान तेरा जिन्द तेरा, पाँवों शिर धरते हैं।
दादू दीवान तेरा, जर खरीद घर के हैं॥3॥
423. गज ताल
मुख बोल स्वामी तूं अन्तर्यामी, तेरा शब्द सुहावे रामजी॥टेक॥
धेनु चरावन बेनु बजावन, दर्श दिखावन कामिनी॥1॥
विरह उपावन तप्त बुझावन, अंग लगावन भामिनी॥2॥
संग खिलावन रास बनावन, गोपी भावन भूधरा॥3॥
दादू तारन दुरित निवारण, संत सुधारण रामजी॥4॥
424. केवल विनती। गज ताल
हाथ दे हो रामा,
तुम सब पूरण कामा, हौं तो उरझ रह्यो संसार॥टेक॥
अंध कूप गृह में पर्यो, मेरी करहु सँभाल।
तुम बिन दूजा को नहीं, मेरे दीनानाथ दयाल॥1॥
मारग को सूझे नहीं, दह दिशि माया जाल।
काल पाश कसि बाँधियो, मेरे कोइ न छुड़ावणहार॥2॥
राम बिना छूटे नहीं, कीजे बहुत उपाय।
कोटि किये सुलझे नहीं, अधिक अलूझत जाय॥3॥
दीन दुःखी तुम देखताँ, भय दुःख भँजन राम।
दादू कहै कर हाथ दे हो, तुम सब पूरण काम॥4॥
425. करुणा विनती। त्रिताल
जिन छाडे राम जिन छाडे, हमहिं बिसार जिन छाडे।
जीव जात न लागे, बार जिन छाडे॥टेक॥
माता क्यों बालक तजे, सुत अपराधी होय।
कबहुँ न छाडे जीव तैं, जिन दुःख पावे सोय॥1॥
ठाकुर दीनदयाल है, सेवक सदा अचेत।
गुण-अवगुण हरि ना गिणे, अंतर तासौं हेत॥2॥
अपराधी सुत सेवका, तुम हो दीन दयाल।
हम तैं अवगुण होत है, तुम पूरण प्रतिपाल॥3॥
जब मोहन प्राणी चले, तब देही किहिं काम।
तुम जानत दादू का कहै, अब जिन छाडे राम॥4॥
426. चौताल
विखम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी।
भक्ति भाव वेग आइ, भीड़ भंजन स्वामी॥टेक॥
अंत अधार संत सुधार, सुन्दर सुखदाई।
काम-क्रोध काल ग्रसत, प्रकटो हरि आई॥1॥
पूरण प्रतिपाल कहिए, सुमिरे तैं आवे।
भरम कर्म मोह लागे, काहे न छुड़ावे॥2॥
दीन दयालु होह कृपालु, अंतरयामी कहिए।
एक जीव अनेक लागे, कैसे दुःख सहिए॥3॥
पावन पीव चरण शरण, युग-युग तैं तारे।
अनाथ नाथ दादू के, हरि जी हमारे॥4॥
427. विनती। त्रिताल
साजनियाँ नेह न तोरी रे,
जे हम तौरें महा अपराधी, तो तूं जोरी रे॥टेक॥
प्रेम बिना रस फीका लागे, मीठा मधुर न होई।
सकल शिरोमणि सब तैं नीका, कड़वा लागे सोई॥1॥
जब लग प्रीति प्रेम रस नाँहीं, तृषा बिना जल ऐसा।
सब तैं सुन्दर एक अमीरस, होइ हलाहल जैसा॥2॥
सुन्दरि सांई खरा पियारा, नेह नवा नित होवे।
दादू मेरा तब मन माने, सेज सदा सुख सोवे॥3॥
428. कर्ता कीर्ति। त्रिताल
काइमां! कीर्ति करूँली रे, तूं मोटो दातार।
सब तैं सिरजीड़ा तू मोटो कर्तार॥टेक॥
चौदह भुवन भाने घड़े, घड़त न लागे बार।
थापे उथपे, तूं धणी, धन्य-धन्य सिरजनहार॥1॥
धरती-अम्बर तैं धर्या, पाणी पवन अपार।
चंद-सूर दीपक रच्या, रैन-दिवस विस्तार॥2॥
ब्रह्मा शंकर तैं किया, विष्णु दिया अवतार।
सुर नर साधु सिरजिया, करले जीव विचार॥3॥
आप निरंजन ह्वै रह्या, काइमां कौतिकहार।
दादू निर्गुण गुण कहै, जाऊँली बलिहार॥4॥
429. उपदेश चेतावनी। प्रति ताल
जियरा राम भजन कर लीजे,
साहिब लेखा माँगेगा रे, उत्तर केसे दीजे॥टेक॥
आगे जाइ पछतावण लागो, पल-पल यहु तन छीजे।
ताथैं जिय समझाइ कहूँ रे, सुकृत अब थैं कीजे॥1॥
राम जपत जम काल न लागे, संग रहैं जन जीजे।
दादू दास भजन कर लीजे, हरिजी की रास रमीजे॥2॥
430. काल चेतावनी। प्रति ताल
काल काया गढ़ भेलसी, छीजे दशों दुवारो रे।
देखतड़ां ते लूटिए, होसी हाहाकारो रे॥टेक॥
नाइक नगर न मेल्हसी, एकलड़ो ते जाई रे।
संग न साथी कोई न आसी, तहाँ को जाणे कि थाई रे॥1॥
सत जत साधो म्हारा भाईड़ा, कांई सुकुत लीजे सारो रे।
मारग विखम चालबो, कांई लीजे प्राण अधारो रे॥2॥
जिमि नीर निवांणां ठाहरे, तिमि साजी बाँधो पालो रे।
समर्थ सोई सेविए, तो काया न लागे कालो रे॥3॥
दादू मन घर आंणिए तो निश्चल थर थाये रे।
प्राणी ने पूरो मिले, तो काया न मेल्ही जाये रे॥4॥
431. भयभीत भयानक। दीपचन्दी
डरिए रे डरिए, परमेश्वर तैं डरिए रे,
लेखा लेवे भर-भर देवे, ताथैं बुरा न करिए रे॥टेक॥
साँचा लीजे साँचा दीजे, साँचा सौदा कीजे रे।
साँचा राखी झूठा नाँखी, विष ना पीजे रे॥1॥
निर्मल गहिए निर्मल रहिए, निर्मल कहिए रे।
निर्मल लीजे निर्मल दीजे, अनत न बहिए रे॥2॥
साह पठाया, बनिजन आया, जिन डहकावे रे।
झूठ न भावे फेरि पठावे, किया पावे रे॥3॥
पंथ दुहेला जाइ अकेला, भार न लीजे रे।
दादू मेला होइ सुहेला, सो कुछ कीजे रे॥4॥
432. दीपचन्दी
डरिए रे डरिए, देख-देख पग धरिए,
तारे तरिए मारे मरिए, ताथै गर्व न करिए रे, डरिए॥टेक॥
देवे-लेवे समर्थ दाता, सब कुछ छाजे रे।
तारे मारे गर्व निवारे, बैठा गाजे रे॥1॥
राखैं रहिए बाहें बहिए, अनत न लहिए रे।
भानैं घड़ै सँवारै आपै, ऐसा कहिए रे॥2॥
निकट बुलावे दूर पठावे, सब बन आवे रे।
पाके काचे काचे पाके, ज्यों मन भावे रे॥3॥
पाक पाणी पाणी पावक, कर दिखलावे रे।
लोहा कंचन कंचन लोहा, कहि समझावे रे॥4॥
शशिहर सूर सूरतैं शशिहर, परगट खेले रे।
धरती अम्बर अम्बर धरती, दादू मेले रे॥5॥
433. हितोपदेश। चौताल
मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजे।
एक अंग सदा संग, सहजैं रस पीजे॥टेक॥
सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं।
अंतर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं॥1॥
हृदय शुद्ध विमल बुद्धि, पूरण परकासे।
रसना निज नाम निरख, अंतर गति बासे॥2॥
आत्म मति पूरण गति, प्रेम भक्ति राता।
मगन गलित अरस परस, दादू रस माता॥3॥
434. विनती। त्रिताल
गोविन्द (जी) के चरणों ही ल्यौ लाऊँ,
जैसे चातक वन में बोले, पीव-पीव कर ध्याऊँ॥टेक॥
सुरजन मेरी सुनहु बीनती, मैं बलि तेरे जाऊँ।
विपति हमारी तोहि सुनाऊँ, दे दर्शन क्यों ही पाऊँ॥1॥
जाते दुःख-सुख उपजत तन को, तुम शरणागति आऊँ।
दादू को दया कर दीजे, नाम तुम्हारो गाऊँ॥2॥
435. त्रिताल
ए! प्रेम भक्ति बिन रह्यो न जाई, परकट दर्शन हेतु अघाई॥टेक॥
तालाबेली तलफै माँहीं, तुम बिन राम जियरे जक नाँहीं॥1॥
निश वासर मन रहै उदासा, मैं जन व्याकुल श्वासों श्वासा॥2॥
एकमेक रस होइ न आवे, ताथे प्राण बहुत दुख पावे॥3॥
अंग-संग मिल यहु सुख दीजे, दादू राम रसायण पीजे॥4॥
436. परिचय उपदेश। पंजाबी त्रिताल
तिस घर जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप।
सोइ अब ध्याइए रे, सब देवन का भूप॥टेक॥
अकल स्वरूप पीव का, बान बरण न पाइए।
अखंड मंडल माँहिं रहै, सोई प्रीतम गाइए॥
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा प्रकट पीव ते पाइए।
सांई सेती संग साँचा, जीवित तिस घर जाइए॥1॥
अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिए।
शून्य मंडल माँहिं साँचा, नैन भर सो देखिए॥
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार सोई प्रकट होई,
यह अचम्भा पेखिए।
दयावन्त दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिए॥2॥
अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का, सोई जन जे पाव ही।
दयावन्त दयालु ऐसो, सहजे आप लखाव ही॥
लखे सु लखणहार वे, लखे सोई संग होई, अगम बैन सुनाव ही।
सब दुःख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गाव ही॥3॥
अकल स्वरूपी पीव का, कर कैसे करि आंणिए।
निरन्तर निर्धार आपै, अन्तर सोई, जाणिए॥
जाणहुँ मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, सुमिर सोइ बखानिए।
श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिए॥4॥
437. दीपचन्दी
राम तहाँ प्रकट रहे भरपूर, आत्मा कमल जहाँ।
परम पुरुष तहाँ, झिलमिल झिलमिल नूर॥टेक॥
चन्द-सूर मध्य भाई, तहाँ बसे राम राइ, गंग-यमुन के तीर।
त्रिवेणी संगम जहाँ, निर्मल विमल तहाँ, निरख-निरख निज नीर॥1॥
आत्मा उलट जहाँ, तेज पुंज रहै तहाँ सहज समाइ।
अगम-निगम अति, जहाँ बसे प्राण प्रति, परसि परसि निज आइ॥2॥
कोमल कुसुम दल, निराकार ज्योति जल, वार न पार।
शून्य सरोवर जहाँ, दादू हंसा रहै तहाँ, विलसि विलसि निज सार॥3॥
438. फरोदस्त ताल
गोविन्द पाया मन भाया, अमर कीये संग लीये।
अक्षय अभय दान दीये, छाया नहिं माया॥टेक॥
अगम गगन अगम तूर, अगम चंद अगम सूर।
काल झाल रहे दूर, जीव नहीं काया॥1॥
आदि-अंत नहीं कोइ, रात-दिवस नहीं होइ।
उदय-अस्त नहीं होइ, मन ही मन लाया॥2॥
अमर गुरु अमर ज्ञान, अमर पुरुष अमर ध्यान।
अमर ब्रह्य अमर थान, सहज शून्य आया॥3॥
अमर नूर अमर बास, अमर तेज सुख निवास।
अमर ज्योति दादू दास, सकल भुवन राया॥4॥
439. फरोदस्त ताल
राम की राती भई माती, लोक वेद विधि निषेध।
भागे सब भ्रम भेद, अमृत रस पीवे॥टेक॥
(लागे) भागे सब काल झाल, छूटे सब जग जंजाल।
बिसरे सब हाल चाल, हरि की सुधि पाई॥1॥
प्राण पवन तहाँ जाइ, अगम निगम मिले आइ।
प्रेम मगन रहे समाइ, बिलसे वपु नाँहीं॥2॥
परम नूर परम तेज, परम पुंज परम सेज।
परम ज्योति परम हेज, सुन्दरि सुख पावे॥3॥
परम पुरुष परम रास, परम लाल सुख विलास।
परम मंगल दादू दास, पीव सौं मिल खेले॥4॥
440. आरती। त्रिताल
इहि विधि आरती राम की कीजे, आत्मा अंतर वारणा लीजे॥टेक॥
तन-मन चंदन प्रेम की माला, अनहद घंटा दीन दयाला॥1॥
ज्ञान का दीपक पवन की बाती, देव निरंजन पाँचों पाती॥2॥
आनंद मंगल भाव की सेवा, मनसा मंदिर आतम देवा॥3॥
भक्ति निरंतर मैं बलिहारी, दादू न जाणे सेव तुम्हारी॥4॥
441. उदीक्षण ताल
आरती जग जीवन तेरी, तेरे चरण कमल पर वारी फेरी॥टेक॥
चित चाँवर हेत हरि ढारे, दीपक ज्ञान हरि ज्योति विचारे॥1॥
घंटा शब्द अनाहद बाजे, आनंद आरती गगन गाजे॥2॥
धूप ध्यान हरि सेती कीजे, पुहुप प्रीति हरि भाँवरि लीजे॥3॥
सेवा सार आतमा पूजा, देव निरंजन और न दूजा॥4॥
भाव भक्ति सौं आरती कीजे, इहि विधि दादू युग-युग जीजे॥5॥
442. उदीक्षण ताल
अविचल आरती देव तुम्हारी, जुग-जुग जीवन राम हमारी॥टेक॥
मरण मीच जम काल न लागे, आवागमन सकल भ्रम भागे॥1॥
जोनी जीव जन्म नहिं आवे, निर्भय नाम अमर पद पावे॥2॥
कलि विष कुश्मल बन्धन कापे, पार पहूँचे थिर कर थापे॥3॥
अनेक उधारे तैं जन तारे, दादू आरती नरक निवारे॥4॥
443. भंगताल
निराकार तेरी आरती, बलि जाउँ अनन्त भुवन के राइ॥टेक॥
सुर नर सब सेवा करै, ब्रह्मा विष्णु महेश।
देव तुम्हारा भेव न जाने, पार न पावे शेष॥1॥
चंद-सूर आरती करै, नमो निरंजन देव।
धरणि पवन आकाश अराधै, सबै तुम्हारी सेव॥2॥
सकल भुवन सेवा करै, मुनिवर सिद्ध समाधि।
दीन लीन ह्वै रहे संत जन, अविगत के आराधि॥3॥
जै-जै जीवनि राम हमारी, भक्ति करै ल्यौ लाइ।
निराकार की आरती कीजे, दादू बलि-बलि जाइ॥4॥
444. दीपचन्दी
तेरी आरती ए, जुग-जुग जै जैकार॥टेक॥
जुग-जुग आतम राम, जुग-जुग सेवा कीजिए॥1॥
जुग-जुग लंघे पार, जुग-जुग जगपति को मिले॥2॥
जुग-जुग तारणहार, जुग-जुग दर्शन देखिए॥3॥
जुग-जुग मंगलाचार, जुग-जुग दादू गाइए॥4॥
॥श्री प्राण उद्धारणहार॥
॥इति राग धनाश्री सम्पूर्ण॥