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अथ राग बिलावल / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ राग बिलावल

(गायन समय प्रातः 6 से 9)

333. परिचय विनती। त्रिताल

दया तुम्हारी दर्शन पइए,
जानत हो तुम अंतरयामी, जानराय तुम सैं कहा कहिए॥टेक॥
तुम सौं कहा चतुराई कीजे, कौण कर्म कर तुम्ह पाये।
को नहिं मिले प्राणि बल अपने, दया तुम्हारी तुम आये॥1॥
कहा हमारो आन तुम आगे, कौन कला कर वश कीये।
जीते कौन बुद्धि बल पौरुष, रुचि अपनी तैं शरण लीये॥2॥
तुम हीं आदि-अंत पुनि तुम हीं, तुम कर्ता त्रय लोक मंझार।
कुछ नाँहीं तैं कहा होत है, दादू बलि पावे दीदार॥3॥

334. विनती। उदीक्षण ताल

मालिक महरबान करीम,
गुनहगार हररोज हरदम, पनह राख रहीम॥टेक॥
अव्वल आखिर बंदा गुनहीं, अमल बद विसियार।
गरक दुनिया सत्तार साहिब, दरदवंद पुकार॥1॥
फरामोश नेकी बदी, करदा बुराई बद फैल।
बखश्न्दिः तूं अजीब आखिर, हुक्म हाजिर सैल॥2॥
नाम नेक रहीम राजिक, पाक परवरदिगार।
गुनह फिल कर देहु दादू, तलब दर दीदार॥3॥

335. उदीक्षण ताल

कौण आदमी कमींण विचारा, किसको पूजे गरीब पियारा॥टेक॥
मैं जन एक अनेक पसारा, भवजल भरिया अधिक अपारा॥1॥
एक होइ तो कह समझाऊँ अनेक अरूझे क्यों सुरझाऊँ॥2॥
मैं हौं निबल सबल ये सारे, क्यों कर पूजूँ बहुत पसारे॥3॥
पीव पुकारूँ समझत नाँहीं दादू देखू दशों दिशि जाँहीं॥4॥

336. उपदेश चेतावनी। भंग ताल

जागहु जियरा काहे सोवे, सेव करीमा तो सुख होवे॥टेक॥
जाथैं जीवण सो तैं विसारा, पच्छिम जाना पथ न सँवारा।
मैं मेरी कर बहुत भुलाना, अजहुँ न चेतै दूर पयाना॥1॥
सांई केरी सेवा नाँहीं, फिर-फिर डूबे दरिया माँहीं।
ओर न आवा, पार न पावा, झूठा जीवन बहुत भुलावा॥2॥
मूल न राख्या लाह न लीया, कौडी बदले हीरा दीया।
फिर पछताना संबल नाँहीं, हार चल्या क्यों पावे सांई॥3॥
अब सुख कारण फिर दुःख पावे, अजहुँ न चेतै क्यों डहकावे।
दादू कहै सीख सुन मेरी, कहु करीम सँभाल सवेरी॥4॥

337. भंगताल

बार-बार तन नहीं बावरे, काहे को बाद गमावे रे।
विनशत बार कछू नहिं लागे, बहुत कहाँ कोइ पावे रे॥टेक॥
तेरे भाग बड़े भाव धर कीन्हा, क्यों कर चित्र बनावे रे।
सो तूं लेय विषय मेें डारे, कंचन छार मिलावे रे॥1॥
तू मत जाने बहुत पाइए, अब के जिन डहकावे रे।
तीन लोक की पूँजी तेरे, बनिज वेगि सो आवे रे॥2॥
जब लग घट में श्वास बास कर, तब लग काहे न धावे रे।
दादू तन धर नाम न लीन्हा, सो प्राणी पछतावे रे॥3॥

338. ललित ताल

राम विसार्यो रे जगन्नाथ,
हीरा हार्यो देखत ही रे, कौडी कीन्हीं हाथ॥टेक॥
काचहु ता कंचन कर जाने, भूल्यो रे भ्रम पास।
साँचे सौं पल परिचय नाँहीं, कर काचे की आस॥1॥
विष ताको अमृत कर जाणे, सो संग न आवे साथ।
सेमल के फूलन पर फूल्यो, चूक्यो अब का घात॥2॥
हरि भज रे मन सहल पिछाण, ये सुनी साँची बात।
दादू रे अब तैं कर लीजे, आयु घटे दिन जात॥3॥

339. मन। ललित ताल

मन चंचल मेरो कह्यो न माने, दशों दिशा दौरावे रे।
आवत-जात बार नहिं लागे, बहुत भाँति बौरावे रे॥टेक॥
बेर-बेर बरजत या मन को, किंचित सीख न माने रे।
ऐसे निकस जात या तन थैं, जैसे जीव न जाणे रे॥1॥
कोटिक यत्न करत या मन को, निश्चल निमष न होई रे।
चंचल चपल चहूँ दिश भरमे, कहा करे जन कोई रे॥2॥
सदा सोच रहत घट भीतर, मन थिर कैसे कीजे रे।
सहजैं सहज साधु की संगति, दादू हरि भज लीजे रे॥3॥

340. माया उत्सव ताल

इन कामिनि घर घाले रे,
प्रीति लगाइ प्राण सब सोखे, बिन पावक जिय जाले रे॥टेक॥
अंग लगाइ सार सब लेवे, इन तैं कोई न बाचेरे।
यह संसार जीत सब लीया, मिलन न देई साँचे रे॥1॥
हेत लगाइ सबै धन लेवे, बाकी कछू न राखे रे।
माखन माँहिं शोध सब लेवे, छाछ छिया कर नाखे रे॥2॥
जे जन जान युक्ति सौं त्यागे, तिनको निज पद परसे रे।
काल न खाइ मरे नहिं कबहुँ, दादू तिनको दरशे रे॥3॥

341. विश्वास। उत्सव ताल

जिन सत छाडे बावरे, पूरक है पूरा।
सिरजे की सब चिन्त है, देवे को सूरा॥टेक॥
गर्भवास जिन राखिया, पावक तैं न्यारा।
युक्ति यत्न कर सींचिया, दे प्राण अधारा॥1॥
कूँज कहाँ धर संचरे, तहाँ को रखवारा।
हिम हरते जिन राखिया, सो खसम हमारा॥2॥
जल-थल जीव जिते रहैं, सो सब को पूरे।
संपट शिला में देत है, काहै नर झूरे॥3॥
जिन यह भार उठाइया, निर्वाहे सोई।
दादू छिन न बिसारिये, तातैं जीवन होई॥4॥

342. गज ताल

सोई राम सँभल जियरा, प्राण पिंड जिन दीन्हा रे।
अम्बर आप उपावनहारा, माँहिं चित्र जिन कीन्हा रे॥टेक॥
चंद-सूर जिन किये चिराका, चरणों बिना चलावे रे।
इक शीतल इक ताता डोले, अनंत कला दिखलावे रे॥1॥
धरती-धरणी वरण बहु वाणी, रचले सप्त समुद्रा रे।
जल-थल जीव सँभालनहारा, पूर रह्या सब संगा रे॥2॥
प्रकट पवन पाणी जिन कीन्हा, वर्षावे बहु धारा रे।
अठारह भार वृक्ष बहुविधि के, सबका सींचनहारा रे॥3॥
पंथ पत्त्व जिन किये पसारा, सब कर देखण लागा रे।
निश्चल राम जपो मेरे जियरा, दादू ताथैं जागा रे॥4॥

343. परिचय। गज ताल

जब मैं रहते ही रह जानी,
काल काया के निकट न आवे, पावत है सुख प्राणी॥टेक॥
शोक संताप नैन नहिं देखूँ, राग-द्वेष नहिं आवे।
जागत है जासौं रुचि मेरी, स्वप्ने सोइ दिखावे॥1॥
भरम कर्म मोह नहिं ममता, वाद-विवाद न जानूँ।
मोहन सौं मेरी बन आई, रसना सोइ बखानूँ॥2॥
निश वासर मोहन तन मेरे, चरण कमल मन माने।
सोइ निधि निरख देख सचु पाऊँ, दादू और न जाने॥3॥

344. राजमृगांक ताल

जब मैं साँचे की सुधि पाई,
तब थैं अंग और नहिं आवे, देखत हूँ सुखदाई॥टेक॥
ता दिन तैं मन ताप न व्यापे, सुख-दुःख संग न जाऊँ।
पावन पीव परश पद लीन्हा आनंद भर गुन गाऊँ॥1॥
सब सौं संग नहीं पुनि मेरे, अरस-परस कुछ नाँहीं।
एक अनंत सोइ संग मेरे, निरखत हूँ निज माँहीं॥2॥
तन-मन माँहि शोध सो लीन्हा, निरखत हूँ निज सारा।
सोई संग सबै सुखदाई, दादू भाग्य हमारा॥3॥

345. साँच निदान। राजमृगांक ताल

हरि बिन निश्चल कहीं न देखूँ, तीन लोक फिरि शोधा रे।
जे दीसे सो विनश जाएगा, ऐसा गुरु परमोधा रे॥टेक॥
धरती गगन पवन अरु पाणी, चन्द सूर थिर नाँहीं रे।
रैनि दविस रहत नहिं दीसे, एक रहै कलि माँहीं रे॥1॥
पीर पैगम्बर शेख मुशायस, शिव विरंचि सब देवा रे।
कलि आया सो कोइ न रहसी, रहसी अलख अभेवा रे॥2॥
सवा लाख मेरु गिरि पर्वत, समंद्र न रहसी थीरा रे।
नदी निवान कछू नहिं दीसे, रहसी अकल शरीरा रे॥3॥
अविनाशी वह एक रहेगा, जिन यहु सब कुछ कीन्हा रे।
दादू जाता सब जग देखूँ, एक रहत सो चीन्हा रे॥4॥

346. पतिव्रता। राज विद्याधर ताल

मूल सींच बधे ज्यों बेला, सो तत तरुवर रहे अकेला॥टेक॥
देवी देखत फिर ज्यों भूले, खाय हलाहल विष को फूले।
सुख को चाहै पड़े गल फाँसी, देखत हीरा हाथ तैं जासी॥1॥
कोई पूजा रच ध्यान लगावें, देवल देखें खबर न पावें।
तोरैं पाती युक्ति न जानी, इहिं भ्रम भूल रहे अभिमानी॥2॥
तीर्थ-व्रत न पूजैं आसा, वन खंड जाँहिं रहैं उदासा।
यूँ तप कर कर देह जलावैं, भरमत डोलैं जन्म गुमावैं॥3॥
सद्गुरु मिले न संशय जाई, ये बन्धन सब देहु छुड़ाई।
तब दादू परम गति पावे, जो निज पूरति माँहिं लखावे॥4॥

347. साधु-परीक्षा। दादरा

सोई साधु शिरोमणी, गोविंद गुण गावे।
राम भजे विषया तजे, आपा न जनावे॥टेक॥
मिथ्या मुख बोले नहीं, पर निन्दा नाँहीं।
अवगुण छाड़े गुण गहै, मन हरि पद माँहीं॥1॥
निर्वैरी सब आतमा, पर आतम जाने।
सुख दाई समता गहै, आपा नहिं आने॥2॥
आपा पर अंतर नहीं, निर्मल निज सारा।
सत्वादी साँचा कहै, लै लीन विचारा॥3॥
निर्भय भज न्यारा रहै, काहू लिप्त न होई।
दादू सब संसार में, ऐसा जन कोई॥4॥

348. परिचय परीक्षा। यति ताल

राम मिल्या यूँ जानिए, जाको काल न व्यापै।
जरा मरण ताको नहीं, अरु मेटे आपै॥टेक॥
सुख-दुःख कबहु न ऊपजे, अरु सब जग सूझे।
कर्म को बाँधे नहीं, सब आगम बूझे॥1॥
जागत ह्वै सो जन रहे, अरु युग-युग जागे।
अंतरयामी सौं रहे, कुछ काई न लागे॥2॥
काम दहै सहजैं रहै, अरु शून्य विचारे।
दादू सो सब की लहै, अरु कबहुँ न हारे॥3॥

349. समता ज्ञान। त्रिताल

इन बातन मेरा मन माने,
द्वितिया दोइ नहीं उर अंतर, एक-एक कर पिव को जाने॥टेक॥
पूर्ण ब्रह्म देखे सबहिन में, भ्रम न जीव काहू थैं आने।
होइ दयालु दीनता सब सौं, अरि पांचन को करे कसाने॥1॥
आपा पर सम सब तत चीन्हें, हरी भजे केवल यश गाने।
दादू सोइ सहज घर आने, संकट सबै जीव के भाने॥2॥

350. परिचय। एक ताल

यह मन मेरा पीव सौं, औरन सौं नाँहीं।
पिय बिन पल हि न जीव सौं, यह उपजे माँहीं॥टेक॥
देख-देख सुख जीव सौं, तहाँ धूप न छाँहीं।
अजराबर मन बंधिया, ताथैं अनत न जाँहीं॥1॥
तेज पुंज फलन पाइया, तहाँ रस खाँहीं।
अमर बेलि अमृत झरे, पीव-पीव अघाँही।
दादू पिव परिचय भया, हिय रे हित लाँईं॥3॥

351. त्रिताल

आज प्रभात मिले हरि लाल,
दिल की व्यथा पीड़ सब भागी, मिट्यो जीव को साल॥टेक॥
देखत नैन संतोष भयो है, इहै तुम्हारो ख्याल।
दादू जन सौं हिल-मिल रहिबो, तुम हो दीन दयाल॥1॥

352. निज स्थान निर्णय उपदेश। एक ताल

अर्श इलाही रब्बदा, ईथांई रहमान वे।
मक्का बीच मुसाफरीला, मदीना मुलतान वे॥टेक॥
नबी नाल पैगम्बरे, पीरों हंदा थान वे।
जन तहुँ ले हिकसा ला, इथां वहिश्त मुकाम वे॥1॥
इथां आब जमजमा, इथां ही सुबहान वे।
तख्त रबानी कंगुरेला, इथां ही सुलतान वे॥2॥
सब इथां अंदर आव वे, इथां ही ईमान वे।
दादू आप बंजाइ बेला, इथां ही आसान वे॥3॥

353. क्रीड़ा तालश्चंडनि

आसण रसदा रामदा, हरि इथां अविगत आप वे।
काया काशी वंजणां, हरि इथैं पूजा आप वे॥टेक॥
महादेव मुनि देवते, सिद्धोंदा विश्राम वे।
स्वर्ग सुखासण हुलणें, हरि इथौं आतम राम वे॥1॥
अमी सरोवर आतमा, इथां ही आधार वे।
अमर थान अविगत रहै, हरि इथैं सिरजनहार वे॥2॥
सब कुछ इथैं आव वे, इथां परमानन्द वे।
दादू आपा दूर कर, हरि इतां ही आनन्द वे॥3॥

॥इति राग बिलावल सम्पूर्ण॥