अथ राग भैरूँ / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ राग भैरूँ
(गायन समय प्रातः काल)
373. सद्गुरु तथा नाम महिमा। त्रिताल
सद्गुरु चरणा मस्तक धरणा,
राम नाम कहि दुस्तर तिरणा॥टेक॥
अठ सिधि नव निधि सहजैं पावे,
अमर अभय पद सुख में आवे॥1॥
भक्ति मुक्ति बैकुंठां जाइ,
अमर लोक फल लेवे आइ॥2॥
परम पदारथ मंगल चार,
साहिब के सब भरे भंडार॥3॥
नूर तेज है ज्योति अपार,
दादू राता सिरजनहार॥4॥
374. उत्तम ज्ञान-स्मरण। चौताल
तन ही राम मन ही राम, राम हृदय रमि राखी ले।
मनसा राम सकल परिपूरण, सहज सदा रस चाखी ले॥टेक॥
नैना राम बैना राम, रसना राम सँभारी ले।
श्रवणा राम सन्मुख राम, रमता राम विचारी ले॥1॥
श्वासैं राम सुरतैं राम, शब्दैं राम समाई ले।
अन्तर राम निरन्तर राम, आत्माराम ध्याई ले॥2॥
सर्वै राम संगै राम, राम नाम ल्यौ लाई ले।
बाहर राम भीतर राम, दादू गोविन्द गाई ले॥3॥
375. उत्तम स्मरण। मदन ताल
ऐसी सुरति राम ल्यौ लाइ, हरी हृदय जिन बिसरि जाइ॥टेक॥
छिन-छिन मात सँभाले पूत, बिन्दु राखे योगी अवधूत।
त्रिया कुरूप रूप को रढ़े, नटणी निरख बाँस बरत चढ़े॥1॥
कच्छप दृष्टि धरे धियान, चातक नीर प्रेम की बान।
कूंजी कुरलि सँभाले सोइ, भृंगी ध्यान कीट को होइ॥2॥
श्रवणों शब्द ज्यों सुने कुरंग, ज्योति पतंग न मोड़े अंग।
जल बिन मीन तलफि ज्यों मरे, दादू सेवक ऐसे करे॥3॥
376. स्मरण फल। एक ताल
निर्गुण राम रहै ल्यौ लाइ, सहजैं सहज, मिले हरि जाइ॥टेक॥
भव जल व्याधि लिपे नहिं कबहूँ, कर्म न कोई लागे आइ।
तीनों ताप जरे नहिं जियरा, सो पद परसे सहज सुभाइ॥1॥
जन्म जुरा योनि नहिं आवे, माया मोह न लागे ताहि।
पाँचों पीड़ा प्राण नहिं व्यापे, सकल शोधि सब इहै उपाइ॥2॥
संकट-संशय नरक न नैनहुँ, ताको कबहू काल न खाइ।
कंप न काई भय भ्रम भागे, सब विधि ऐसी एक लगाइ॥3॥
सहज समाधि गहो जे दृढ़ कर, जासैं लागे सोई आइ।
भृंगी होइ कीट की नाँई, हरि जन दादू एक दिखाइ॥4॥
377. आशीर्वाद। षड् ताल
धन्य धन्य तूं धन्य धणी, तुम सौं मेरी आइ बणी॥टेक॥
धन्य धन्य तूं तारे जगदीश, सुर नर मुनि जन सेवै ईश।
धन्य धन्य तूं केवल राम, शेष सहस्र सुख ले हरि नाम॥1॥
धन्य धन्य तूं सिरजनहार, तेरा कोई न पावे पार।
धन्य धन्य तूं निरंजन देव, दादू तेरा लखे न भेव॥2॥
378. भयभीत भयानक। दादरा
का जाणों मोहि का ले करसी,
तन हिं ताप मोहि छिन न बिसरसी॥टेक॥
आगम मोपे जान्यूँ न जाइ, इहै विमासण जियरे माँहिं॥1॥
मैं नहिं जाणो क्या शिर होइ, ताथैं जियरा डरपै रोइ॥2॥
काहू थैं ले कछू करै, ताथैं माइया जीव डरे॥3॥
दादू न जाने कैसे कहै, तुम शरणागति आइ रहै॥4॥
379. क्रीड़ा तालश्चण्डनि
का जानूँ राम को गति मेरी, मैं विषयी मनसा नहिं फेरी॥टेक॥
जे मन माँगे सोई दीन्हा, जाता देख फेरि नहिं लीन्हा॥1॥
देवा द्वन्द्वर अधिक पसारे, पाँचों पकर नहिं मारे॥2॥
इन बातन घट भरे विकारा, तृष्णा तेज मोह नहिं हारा॥3॥
इनहिं लाग मैं सेव न जानी, कह दादू सुन कर्म कहानी॥4॥
360. क्रीड़ा तालश्चण्डनि
डरिए रे डरिए, तातैं राम नाम चित्त धरिए॥टेक॥
जिन ये पंच पसारे रे, मारे रे ते मारे रे॥1॥
जिन ये पंच समेटे रे, भेटे रे ते भेटे रे॥2॥
कच्छप ज्यों कर लीये रे, जीये रे ते जीये रे॥3॥
भृंगी कीट समाना रे, ध्याना रे यहु ध्याना रे॥4॥
अजा सिंह ज्यों रहिए रे, दादू दर्शन लहिए॥5॥
381. हरि प्राप्ति दुर्लभ। त्रिताल
तहाँ मुझ कमीन की कौन चलावे,
जाको अजहूँ मुनि जन महल न पावे॥टेक॥
शिव विरंचि नारद यश गावे, कौन भाँति कर निकट बुलावे॥1॥
देवा सकल तेतीसों कोरि, रहे दरबार ठाढ़े कर जोरि॥2॥
सिध साधक रहे ल्यौ लाइ, अजहूँ मोटे महल न पाइ॥3॥
सब तैं नीच मैं नाम न जाना, कहै दादू क्यों मिले सयाना॥4॥
382. करुणा विनती। त्रिताल
तुम बिन कहो क्यों जीवण मेरा, अजहूँ न देखा दर्शण तेरा॥टेक॥
होहु दयाल दीन का दाता, तुम पति पूरण सब विधि साँचा॥1॥
जो तुम करो सोइ तुम्ह छाजे, अपणे जन को काहे न निवाजे॥2॥
अकरन करन ऐसे अब कीजे, अपणो जान कर दर्शण दीजे॥3॥
दादू कहै सुनहुँ हरि सांई, दर्शण दीजे मिली गुसांई॥4॥
283. उपदेश चेतावनी। पंजाबी त्रिताल
कागारे करंक पर बोले, खाइ मांस अरु लग ही डोले॥टेक॥
जा तन को रच अधिक सँवारा, सो तन ले माटी में डारा॥1॥
जा तन देख अधिक नर फूले, सो तन छाडि चल्यारे भूले॥2॥
जा तन देख मन में गर्वाना, मिल गया माटी तज अभिमाना॥3॥
दादू तन की कहा बड़ाई, निमष माँहिं माटी मिल जाई॥4॥
384. उपदेश। त्रिताल
जप गोविन्द बिसर जिन जाइ, जन्म सफल करिए लै लाइ॥टेक॥
हरि सुमिरण सौं हेत लगाइ, भजन प्रेम यश गोविन्द गाइ।
मानुष देह मुक्ति का द्वारा, राम सुमरि जग सिरजनहारा॥1॥
जब लग विषम व्याधि नहिं आई, जब लग काल काया नहिं खाई।
जब लग शब्द पलट नहिं जाई, तब लग सेवा कर राम राई॥2॥
अवसर राम कहसि नहिं लोई, जन्म गया तब कहे न कोई।
जब लग जीवे तब लग सोई, पीछैं फिर पछतावा होई॥3॥
सांई सेवा सेवक लागे, सोई पावे जे कोइ जागे।
गुरुमुख भरम तिमर सब भागे, बहुर न उलटे मारग लागे॥4॥
ऐसा अवसर बहुर न तेरा, देख विचार समझ जिय मेरा।
दादू हारि जीत जग आया, बहुत भाँति कहि-कहि समझाया॥5॥
385. प्रतिताल
राम नाम तत काहे न बोले, रे मन मूढ अनत जिन डोले॥टेक॥
भूला भरमत जन्म गमावे, यहु रस रसना काहे न गावे॥1॥
क्या झक और परत जंजाले, वाणी विमल हरि काहे न सँभाले॥2॥
राम विसार जन्म जिन खोवे, जपले जीवन साफल होवे॥3॥
सार सुधा सदा रस पीजे, दादू तन धर लाहा लीजे॥4॥
386. तत्त्वोपदेश। प्रतिपाल
आप आपण में खोजे रे भाई, वस्तु अगोचर गुरु लखाई॥टेक॥
ज्यों मही बिलोये माखण आवे, त्यों मन मथियाँ तैं तत पावे॥1॥
काष्ठ हुताशन रह्या समाई, त्यों मन माँहीं निरंजन राई॥2॥
ज्यों अवनी में नीर समाना, त्यों मन माँहीं साँच सयाना॥3॥
ज्यों दर्पण के नहिं लागे काई, त्यों मूरति माँहीं निरख लखाइ॥4॥
सहजैं मन मथिया तैं तत पाया, दादू उन तो आप लखाया॥5॥
387. उपदेश धीमा ताल
मन मैला मन ही सौं धोइ, उनमनि लागे निर्मल होइ॥टेक॥
मन ही उपजे विषय विकार, मन ही निर्मल त्रिभुवन सार॥1॥
मन ही दुविधा नाना भेद, मन ही समझै द्वै पख छेद॥2॥
मन ही चंचल चहुँ दिशि जाइ, मन ही निश्चल रह्या समाइ॥3॥
मन ही उपजे अग्नि शरीर, मन ही शीतल निर्मल नीर॥4॥
मन उपदेश मन ही समझाइ, दादू यहु मन उनमनि लाइ॥5॥
388. मन प्रति शूरातन। धीमा ताल
रहु रे रहु मन मारूँगा, रती रती कर डारूँगा॥टेक॥
खंड खंड कर नाखूँगा, जहाँ राम तहँ राखूँगा॥1॥
कह्या न माने मेरा, शिर भानूँगा तेरा॥2॥
घर में कदे न आवे, बाहर को उठ धावे॥3॥
आत्मा राम न जाने, मेरा कह्या न माने॥4॥
दादू गुरुमुख पूरा, मन सौं झूझे शूरा॥5॥
389. नाम शूरातन। मकरन्द ताल
निर्भय नाम निरंजन लीजे, इन लोगन का भय नहिं कीजे॥टेक॥
सेवक शूर शंक नहिं माने, राणा राव रंक कर जाने॥1॥
नाम निशंक मगन मतवाला, राम रसायण पिवे पियाला॥2॥
सहजैं सदा राम रंग राता, पूरण ब्रह्म प्रेम रस माता॥3॥
हरि बलवंत सकल शिर गाजे, दादू सेवक कैसे भाजे॥4॥
390. समर्थाई। प्रतिताल
ऐसे अलख अनंत अपारा, तीन लोक जाको विस्तारा॥टेक॥
निर्मल सदा सहज घर रहै, ताको पार न कोई लहै।
निर्गुण् निकट सब रह्यो समाइ, निश्चल सदा न आवे जाइ॥1॥
अविनाशी है अपरंपार, आदि अनंत रहै निरधार।
पावन सदा निरंतर आप, कला अतीत लिपत नहिं पाप॥2॥
समर्थ सोई सकल भरपूर, बाहर-भीतर नेड़ा न दूर।
अकल आप कलै नहिं कोई, सब घट रह्यो निरंजन होई॥3॥
अवरण आपैं अजर अलेख, अगम अगाध रूप नहिं रेख।
अविगत की गति लगी न जाइ, दादू दीन ताहि चित्त लाइ॥4॥
391. समर्थ लीला। तिलवाड़ा
ऐसो राजा सेऊँ ताहि, और अनेक सब लागे जाहि॥टेक॥
तीन लोक ग्रह धरे रचाइ, चंद-सूर दोउ दीपक लाइ।
पवन बुहारे गृह अंगणा, छपन कोटि जल जाके घराँ॥1॥
राते सेवा शंकर देव, ब्रह्मा कुलाल न जाने भेव।
कीरति करणा च्यारों वेद, नेति-नेति न जाणैं भेद॥2॥
सकल देव पति सेवा करैं, मुनि अनेक एक चित धरैं।
चित्र विचित्र लिखें दरबार, धर्म राइ ठाढ़े गुण सार॥3॥
रिधि सिधि दासी आगे रहैं, चार पदारथ जी जी कहैं।
सकल सिद्ध रहैं ल्यौ लाइ, सब परिपूरण ऐसो राइ॥4॥
खलक खजीना भरे भंडार, ता घर बरतैं सब संसार।
पूरि दिवान सहज सब दे, सदा निरंजन ऐसो है॥5॥
नारद गाये गुण गोविन्छ, करे सारदा सब ही छंद।
नटवर नाचे कला अनेक, आपन देखे चरित अलेख॥6॥
सकल साधु बाजैं नीशान, जै जैकार न मेटै आन।
मालिनि पुहप अठारह भार, आपण दाता सिरजनहार॥7॥
ऐसो राजा सोई आहि, चौदह भुवन में रह्यो समाइ।
दादू ताकी सेवा करे, जिन यहु रचले अधर धरे॥8॥
392. जीवित मृतक। एक ताल
जब यहु मैं मैं मेरी जाइ, तब देखत बेग मिलैं राम राइ॥टेक॥
मैं मैं मेरी तब लग दूर, मैं मैं मेटि मिले भरपूर॥1॥
मैं मैं मेरी तब लग नाँहिं, मैं मैं मेटि मिले मन माँहि॥2॥
मैं मैं मेरी न पावे कोइ, मैं मैं मेटि मिले जन सोइ॥3॥
दादू मैं मैं मेरी मेटि, तब तूं जान राम सौं भेटि॥4॥
393. ज्ञान प्रलय। मदन ताल
नाँही रे हम नाँही रे, सत्य राम सब माँही रे॥टेक॥
नाँहीं धरणि अकाशा रे, नाँहीं पवन प्रकाशा रे।
नाँहीं रवि शशि तारा रे, नाँहिं पावक प्रजारा रे॥1॥
नाँहीं पंच पसारा रे, नाँहीं सब संसारा रे।
नहिं काया जीव हमारा रे, नहिं बाजी कौतिक हारा रे॥2॥
नाँहीं तरुवर छाया रे, नहिं पंखी नहिं माया रे।
नाँहीं गिरिवर वासा रे, नाँहिं समुद्र निवासा रे॥3॥
नाँहीं जल थल खंडा रे, नाँहीं सब ब्रह्मंडा रे।
नाँहीं आदि अनंता रे, दादू राम रहंता रे॥4॥
394. मध्य मार्ग निष्पक्ष। षड् ताल।
अलह कहो भावै राम कहो, डाल तजो सब मूल गहो॥टेक॥
अलह राम कहि कर्म दहो, झूठे मारग कहा बहो॥1॥
साधु संगति तो निबहो, आइ परे सो शीश सहो॥2॥
काया कमल दिल लाइ रहो, अलख अलह अलह दीदार लहो॥3॥
सद्गुरु की सुन सीख अहो, दादू पहुँचे पार पहो॥4॥
395. दादरा
हिन्दू-तुरक न जानूँ दोई,
सांई सबन का सोई है रे, और न दूजा देखूँ कोई॥टेक॥
कीट-पतंग सबै योनिन में, जल-थल संग समाना सोइ।
पीर पैगम्बर देवा दानव, मीर मलिक मुनि जन को मोहि॥1॥
कर्ता है रे सोई चीन्हौं, जिन वै क्रोध करे रे कोइ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम-रहीम देही तन धोइ॥2॥
सांई केरी सेवा कीजे, पायो धन काहे को खोइ।
दादू रे जन हरि जप लीजे, जन्म-जन्म जे सुरजन होइ॥3॥
396. मदन ताल
को स्वामी को शेख कहै, इस दुनियाँ का मर्म न कोई लहै॥टेक॥
कोई राम कोई अलह सुनावे,
पुनि अलह राम का भेद न पावे॥1॥
कोइ हिन्दू कोइ तुरक कर माने,
पुनि हिन्दू-तुरक की खबर न जाने॥2॥
यहु सब करणी दोनों वेद, समझ परी तब पाया भेद॥3॥
दादू देखे आतम एक, कहबा-सुनबा अनंत अनेक॥4॥
397. निन्दा। त्रिताल
निन्दत है सब लोक विचारा, हमको भावे राम पियारा॥टेक॥
निरसंशय निर्दोष लगावे, तातैं मोकौं अचरज आवे॥1॥
दुविधा द्वै पख रहिता जे, तासन कहत गये रे ये॥2॥
निर्वैरी निष्कामी साध, ता शिर देत बहुत अपराध॥3॥
लोहा कंचन एक समान, तासन कहत करत अभिमान॥4॥
निन्दा स्तुति एकै तोले, तासन कहैं अपवाद ही बोले॥5॥
दादू निन्दा ताको, भावे, जाके हिरदै राम न आवे॥6॥
398. अनन्य शरण। उदीक्षण ताल
म्हारूँ सूँ जेहूँ आपू, ताहरूँ छै तूनै थापू॥टेक॥
सर्व जीवा नों तूं दातार, तैं सिरज्या ने तू प्रतिपाल॥1॥
तन धन ताहरो तैं दीधो, हूँ ताहरो ने तैं कीधो॥2॥
सहुवें ताहरो साँचौ ये, मैं मैं म्हारो झूठो ते॥3॥
दादू ने मन और न आवे, तूं कर्ता ने तूं हि जु भावे॥4॥
399. निष्काम साधु। उदीक्षण ताल
ऐसा अवधू राम पियारा, प्राण पिंड तैं रहै नियारा॥टेक॥
जब लग काया तब लग माया, रहै निरन्तर अवधू राया॥1॥
अठ सिधि भाई नौ निधि आई, निकट न जाई राम दुहाई॥2॥
अमर अभय पद वैकुण्ठ वास, छाया माया रहै उदास॥3॥
सांई सेवक सब दिखलावे, दादू दूजा दृष्टि न आवे॥4॥
400. शूरातन कसौटी। भंगताल
तूं साहिब मैं सेवक तेरा, भावै शिर दे शूली मेरा॥टेक॥
भावै करवत शिर पर सार, भावै लेकर गरदन मार॥1॥
भावै चहुँ दिसि अग्नि लगाइ, भावै काल दशो दिशि खाइ॥2॥
भावै गिर वर गगन गिराइ, भावे दरिया माँहि बहाइ॥3॥
भावै कनक कसौटी देहु, दादू सेवक कस-कस लेहु॥4॥
401. साधु। भंगताल
काम, क्रोध नहिं आवे मेरे, तातैं, गोविन्द पाया नेरे॥टेक॥
भरम कर्म सब दीन्हा, रमता राम सबन में चीन्हा॥1॥
दुविधा दुर्गति दूर गमाई, राम रमत साँची मन आई॥2॥
नीच-ऊँच मध्यम को नाँहीं, देखूँ राम सबन के माँहीं॥3॥
दादू साँच सबन में सोई, पेड़ पकर जन निर्भय होई॥4॥
402. हितोपदेश। खेमटा ताल
हाजिरां हजूर सांई, है हरि नेड़ा दूर नाँहीं॥टेक॥
मनी मेट महल में पावे, काहे खोजन दूर जावे॥1॥
हिर्स न होई गुसा सब खाइ, ताथैं संइयां दूर न जाइ॥2॥
दुई दूर दरोग न होइ, मालिक मन में देखे सोई॥3॥
अरि ये पंच शोध सब मारे, तब दादू देखे निकट विचारे॥4॥
403. खेमटा ताल
राम रमत देखे नहिं कोई, जो देखे सो पावन होई॥टेक॥
बाहर-भीतर नेड़ा न दूर, स्वामी सकल रह्या भरपूर॥1॥
जहाँ देखूँ तहँ दूसर नाँहिं, सब घट राम समाना माहिं॥2॥
जहाँ जाउँ तहँ सोई साथ, पर रह्या हरि त्रिभुवन नाथ॥3॥
दादू हरि देखें सुख होइ, निश दिन निरखन दीजे मोहि॥4॥
404. अध्यात्म एकताल
मन पवन ल उनमनि रहै, अगम निगम मूल सो लहै॥टेक॥
पंच वायु जे सहल समावे, शशिहर के घर आंणे सूर।
शीतल सदा मिले सुखदाई, अनहद शब्द बजावे तूर॥1॥
बंकनालि सदा रस पीवे, तब यहु मनवा कहीं न जाइ।
विकसे कमल प्रेम जब उपजे, ब्रह्म जीव की करे सहाइ॥2॥
बैस गुफा मैं ज्योति विचारे, तब तेहिं सूझे त्रिभुवन राइ।
अंतर आप मिले अविनाशी, पद आनन्द काल नहिं खाइ॥3॥
जामन मरण जाइ भव भाजे, अवरण के घर वरण समाइ।
दादू जाय मिले जगजीवन, तब यहु आवागमन विलाइ॥4॥
405. एकताल
जीवन मूरी मेरे आतम राम, भाग बड़े पायो निज ठाम॥टेक॥
शब्द अनाहत उपज जहाँ सुषुम्न रंग लगावे तहाँ।
तहं रँग लागे निर्मल होई, ये तत उपजे जानैं सोइ॥1॥
सरवर तहाँ हंसा रहै, कर स्नान सबै सुख लहै।
सुखदाई को नैनहुँ जोइ, त्यों-त्यों मन अति आनंद होइ॥2॥
सो हंसा शरणागति जाइ, सुन्दरि तहाँ पखाले पाइ।
पीवे अमृत नीझर नीर, बैठे तहाँ जगत् गुरु पीर॥3॥
तहाँ भाव प्रेम की पूजा होइ, जा पर किरपा जाने सोइ।
कृपा हरि देह उमंग, तहँ जन पायो निर्भय संग॥4॥
तब हंसा मन आनन्द होइ, वस्तु अगोचर लखे रे सोइ।
जा को हरी लखावे आप, ताहि न लिपै पुन्य न पाप॥5॥
तहँ अनहद बाजे अद्भुत खेल, दीपक जले बाति बिन तेल।
अखंड ज्योति तहँ भयो प्रकास, फास बसन्त ज्यों बारह मास॥6॥
त्रय स्थान निरन्तर निर्धार, तहँ प्रभु बैठे समर्थ सार।
नैनहुँ निरखूँ तो सुख होइ, ताहि पुरुष जो लखे न कोइ॥7॥
ऐसा है हरि दी दयाल सेवक की जानैं प्रतिपाल।
चलु हंसा तहँ चरण समान, तहँ दादू पहुँचे परिवान॥8॥
405. आत्म-परमत्मा रास। एकताल
घट-घट गोपी घट-घट कान्ह, घट-घट राम अमर सुस्थान॥टेक॥
गंगा-यमुना अन्तर वेद, सरस्वती नीर बहे परसेद॥1॥
कुंज केलि तहँ परम विलास, सब संगी मिल खेलैं रास॥2॥
तहँ बिन बैना बाजैं तूर, विकसे कमल चन्द अरु सूर॥3॥
पूरण ब्रह्म परम परकास, तहँ निज देखे दादू दास॥4॥
॥इति राग भैरूँ सम्पूर्ण॥