अथ राग सिन्दूरा / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ राग सिन्दूरा
(गायन समय रात्रि 12 से 3)
246. परिचय उपदेश। झपताल
हंस सरोवर तहाँ रमैं, सूभर हरि जल नीर।
प्राणी आप पखालिए, निर्मल सदा हो शरीर॥टेक॥
मुक्ताहल मन मानिया, चुगे हंस सुजान।
मध्य निरन्तर झूलिए, मधुर विमल रस पान॥1॥
भ्रमर कमल रस वासना, रातो राम पीवंत।
अरस परस आनन्द करे, तहाँ मन सदा होइ जीवंत॥2॥
मीन मगन माँहीं रहै, मुदित सरोवर माँहिं।
सुख सागर क्रीड़ा करै, पूरण परमिति नाँहिं॥3॥
निर्भय तहँ भय को नहीं, विलसे बारंबार।
दादू दर्शन कीजिए, सन्मुख सिरजनहार॥4॥
247. झपताल
सुख सागर में झूलबो, कुश्मल झड़े हो अपार।
निर्मल प्राणी होइबो, मिलबो सिरजनहार॥टेक॥
तिहि संयम पावन सदा, पंक न लागे प्रान।
कमल विकासे तिहिं तणों, उपजे ब्रह्म गियान॥1॥
अगम-निगम तहँ गमकरे, तत्त्वैं तत्त्व मिलान।
आसन गुरु के आइबो, मुक्तैं महल समान॥2॥
प्राणी परि पूजा करे, पूरे प्रेम विलास।
सहजैं सुन्दर सेविए, लागी लै कैलास॥3॥
रैण दिवस दीसे नहीं, सहजैं पुंज प्रकास।
दादू दर्शन देखिए, इहि रस रातो हो दास॥4॥
248. शूलताल
अविनाशी संग आत्मा, रमे हो रैण दिन राम।
एक निरन्तर ते भजें, हरि-हरि प्राणी नाम॥टेक॥
सदा अखंडित उर बसे, सो मन जाणी ले।
सकल निरन्तर पूरि सब, आतम रातो ते॥1॥
निराधार निज बैसणों, तिहिं तत आसन पूर।
गुरु-शिष आनंद ऊपजे, सन्मुख सदा हजूर॥2॥
निश्चय ते चाले नहीं, प्राणी ते परिमाण।
साथी साथैं ते रहैं, जाणैं जाण सुजाण॥3॥
ते निर्गुण आगुण धरी, माँहीं कौतुकहार।
देह अछत अलगो रहे, दादू सेव अपार॥4॥
249. शूलताल
पारब्रह्म भज प्राणिया, अविगत एक अपार।
अविनाशी गुरु सेविए, सहजैं प्राण अधार॥टेक॥
ते पुर प्राणी तेहनो, अविचल सदा रहंत।
आदि पुरुष ते आपणों, पूरण परम अनंत॥1॥
अविगत आसन कीजिए, आपैं आप निधान।
निरालम्ब भज तेहनों, आनन्द आतम राम॥2॥
निर्गुण निश्चल थिर रहै, निराकार निज सोइ।
ते सत्य प्राणी सेविए, लै समाधि रत होइ॥3॥
अमर आप रमता रमे, घट-घट सिरजनहार।
गुणातीत भज प्राणिया, दादू यही विचार॥4॥
250. शूरातन। झपताल
क्यों भाजे सेवक तेरा, ऐसा शिर साहिब मेरा॥टेक॥
जाके धरती गगन आकाशा, जाके चन्द सूर कैलाशा।
जाके तेज पवन जल साजा, जाके पंच तत्त्व के बाजा॥1॥
जाके अठारह भार वनमाला, गिरि पर्वत दीन दयाला।
जाके सायर अनन्त तरंगा, जाके चौरासी लख संगा॥2॥
जाके ऐसे लोक अनन्ता, रच राखे विधि बहु भन्ता।
जाके ऐसा खेल पसारा, सब देखे कौतुकहारा॥3॥
जाके काल मीच डर नाँहीं, सो बरत रह्या सब माँहीं।
मन भावे खेले खेला, ऐसा है आप अकेला
जाके ब्रह्मा ईश्वर बंदा, सब मुनि जन लागे अंगा।
जाके साधु सिद्ध सब माँहीं, परिपूरण परिमित नाँहीं॥5॥
सोई भाने घड़े सँवारे, युग केते कबहुँ न हारे।
ऐसा हरि साहिब पूरा, सब जीवन आतम मूर॥6॥
सो सबहिन की सुध जाणैं, जो जैस है तैसी बाणैं।
सर्वंगी राम सयाना, हरि कर सो होइ निदाना॥7॥
जे हरि जन सेवक भाजे, तो ऐसा साहिब लाजे।
अब मरण माँड हरि आगे, तो दादू बाण न लागे॥8॥
251. झपताल
हरि भजतां किमि भाजिए, भाजे भल नाँहीं।
भाजे भल क्यों पाइए, पछतावे माँहीं॥टेक॥
सूरो सो सहजैं भिड़े, सार उर झेले।
रण रोके भाजे नहीं, ते बाण न मेले॥1॥
सती सत साँचा गहै, मरणे न डराई।
प्राण तजे जग देखतां, पियड़ो उर लाई॥2॥
प्राण पतंगा यों तजे, वो अंग न मोड़े।
यौवन जारे ज्योति सौं, नैना भल जोड़े॥3॥
सेवक सो स्वामी भजे, तन-मन तज आसा।
दादू दर्शन ते लहै, सुख संगम पासा॥4॥
252. चेतावनी। रुद्रताल
सुण तूं मना रे मूरख मूढ विचार,
आवे लहरि बिहावणी, दमै देह अपार॥टेक॥
करिबो है तिमि कीजिए रे, सुमिर सो आधार॥1॥
चरण बिहूँणो चालबो रे, संभारी ले सार॥2॥
दादू तेहज लीजिए रे, साँचो सिरजनहार॥3॥
253. रुद्रताल
रे मन साथी म्हारा, तूनैं समझायो कै बारो रे।
राती रंग कसूंभ के, तैं बिसारो आधारो रे॥टेक॥
स्वप्ना सुख के कारणे, फिर पीछे दुःख होई रे।
दीपक दृष्टि पतंग ज्यों, यों भरम जले जिन कोई रे॥1॥
जिह्वा स्वारथ आपणे, ज्यों मीन मरे तज नीरो रे।
माँहीं जाल न जाणियो, तातैं उपनो दुःख शरीरो रे॥2॥
स्वादैं हीं संकट पर्यो, देखत ही नर अंधो रे।
मूरख मूठी छाड़ दे, होइ रह्यो निर्बन्धो रे॥3॥
मान सिखावण म्हारी, तू हरि भज मूल न हारी रे।
सुख सागर सोइ सेविए, जन दादू राज सँभारी रे॥4॥
॥इति राग सिन्दूरा सम्पूर्ण॥