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अथ लै का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ लै का अंग

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥
दादू लै लागी तब जानिए, जे कबहूँ छूट न जाय।
जीवन यों लागी रहै, मूवाँ मंझि समाय॥2॥
दादू जे नर प्राणी लै गता, सोई गत ह्वै जाय।
जे नर प्राणी लै रता, सो सहजैं रहै समाय॥3॥
सब तज गुण आकार के, निश्चल मन ल्यौ लाय।
आतम चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाय॥4॥
तन-मन पवना पंच गह, निरंजन ल्यौ लाय।
जहँ आत्म तहँ परमात्मा, दादू सहज समाय॥5॥
अर्थ अनूपं आप है, और अनरथ भाई।
दादू ऐसी जाण कर, तासौं ल्यौ लाई॥6॥
ज्ञान भक्ति मन मूल गह, सहज प्रेम ल्यौ लाय।
दादू सब आरंभ तज, जनि काहू सँग जाय॥7॥

अगम संसार

पहली था सो अब भया, अब सो आगे होइ।
दादू तीनों ठौर की, बूझे विरला कोइ॥8॥

अध्यात्म

योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजैं-सहजैं आव।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव॥9॥
सहज शून्य मन राखिए, इन दोनों के माँहि।
लै समाधि रस पीजिए, तहाँ काल भय नाँहि॥10॥

सूक्ष्म मार्ग

किहिं मारग ह्वै आइया, किहिं मारग ह्वै जाइ।
दादू कोई ना लहै, केते करैं उपाय॥11॥
शून्य हि मारग आइया, शून्य ही मारग जाय।
चतन पैंडा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाय॥12॥
दादू पारब्रह्म पैंडा दिया, सहज सुरति लै सार।
मन का मारग माँहि घर संगी सिरजनहार॥13॥

लय

राम कहै जिस ज्ञान सौं, अमृत रस पीवे।
दादू दूजा छाड़ि सब, लै लागी जीवे॥14॥
राम रसायन पीवतां जीव ब्रह्म ह्वै जाय।
दादू आतम राम सौं, सदा रहै ल्यौ लाय॥15॥
सुरति समाइ सन्मुख रहे, जुग-जुग जन पूरा।
दादू प्यासा प्रेम का, रस पीवे सूरा॥16॥

अध्यात्म

दादू जहाँ जगद् गुरु रहत है, तहाँ जे सुरति समाय।
तो इन ही नैनहुँ उलट कर, कौतिक देखे आय॥17॥
अख्यूं पसण के पिरी, भिरे उलथ्थौ मंझ।
जित्ते बैठो मां पिरी, नीहारो दो हंझ॥18॥
दादू उलट अपूठा आप में, अंतर शोध सुजाण।
सो ढिग तेरे बावरे, तज बाहर की बाण॥19॥
सुरति अपूठी फेरि कर, आतम मांहै आण।
लाग रहे गुरुदेव सौं, दादू सोइ सयाण॥20॥
जहाँ आत्म तहँ राम है, सकल रह्या भरपूर।
अन्तरगत ल्यौ लाइ रहु, दादू सेवक शूर॥21॥

सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी

दादू अंतरगत ल्यौ लाय रहु, सदा सुरति सौं गाय।
यहु मन नाचे मगन ह्वै, भावै ताल बजाय॥22॥
दादू गावे सुरति सौं, वाणी बाजे ताल।
यहु मन नाचे प्रेम सौं, आगे दीन दयाल॥23॥

विरक्तता

दादू सब बातन की एक है, दुनिया तैं दिल दूर।
सांइ सेती संग कर, सहज सुरति लै पूर॥24॥
दादू एक सुरति सौं सब रहैं, पंचौं उनमनि लाग।
यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग॥25॥
दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग।
अरस परस मिल एक ह्वै, सन्मुख रहिबा संग॥26॥

लय

सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन।
सहज रूप सुमिरण करे, निष्कर्मी दादू दीन॥27॥
सुरति सदा साबित रहै, तिनके मोटे भाग।
दादू पीवे राम रस, रहै निरंजन लाग॥28॥

सूक्ष्म सौंज

दादू सेवा सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं लाय।
जहँ अविनाशी देव है, तहँ सुरति बिना को जाय॥29॥

विनती

दादू ज्यों वै बरत गगन तैं टूटे, कहाँ धरणि कहँ ठाम।
लागी सुरति अंग तै छूटे, सो कत जीवे राम॥30॥

अध्यात्म

सहज योग सुख में रहै, दादू निर्गुण जाण।
गंगा उलटी फेरी कर, जमुना मांहीं आण॥31॥

लय

परमातम सौं आतमा, ज्यों जल उदक समान।
तन-मन पाणी लौंण ज्यों, पावे पद निर्वान॥32॥
मन ही सौं मन सेविए, ज्यों जल जल हि समाय।
आतम चेतन प्रेम रस, दादू रहु ल्यौ लाय॥33॥
यों मन तजे शरीर को, ज्यों जागत सो जाय।
दादू बिसरे देखतां, सहज सदा ल्यौ लाय॥34॥
जिहिं आसण पहली प्राण था, तिहिं आसण ल्यौ लाय।
जे कुछ था सोई भया, कछु न व्यापै आय॥35॥
तन-मन अपणा हाथ कर, ताही सौं ल्यौ लाय।
दादू निर्गुण राम सौं, ज्यों जल जलहि समाय॥36॥

उपजनि

एक मना लागा रहे, अंत मिलेगा सोय।
दादू जाके मन बसे, ताको दर्शन होय॥37॥
दादू निबहै त्यों चले, धीरैं धीरज माँहि।
परसेगा पिव एक दिन, दादू थाके नाँहि॥38॥

लय

जब मन मृतक ह्वै रहे, इन्द्री बल भागा।
काया के सब गुण तजे, निरंजन लागा॥39॥
आदि अंत मधि एक रस, टूटे नहिं धागा।
दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा॥40॥
जब लग सेवक तन धरे, तब लग दूसर आय।
एक मेक ह्वै मिल रहे, तो रस पीवण तैं जाय॥41॥
ये दोनों ऐसी कहैं, कीजे कौण उपाय।
ना मैं एक न दूसरा, दादू रहु ल्यौ लाय॥42॥

-इति लै का अंग सम्पूर्ण