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अथ साँच का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ साँच का अंग

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥

अदया-हिंसा

दादू नया जिन्हों के दिल नहीं, बहुर कहावे साध।
जे मुख उनका देखिए, तो लागे बहु अपराध॥2॥
दादू महर मुहब्बत मन नहीं, दिल के वज्र कठोर।
काले काफिर ते कहिए, मोमिन मालिक और॥3॥
दादू कोई काहू जीव की, करे आतमा घात।
साच कहूँ संशय नहीं, सो प्राणी दोजख जात॥4॥
दादू नाहर सिंह सियाल सब, केते मूसलमान।
मांस खाई मोमिन भये, बड़े मियाँ का ज्ञान॥5॥
दादू मांस अहारी जे नरा, ते नर सिंह सियाल।
बक मांजर सुनहाँ सही, येता प्रत्यक्ष काल॥6॥
दादू मुई मार माणष घणे, ते प्रत्यक्ष जम काल।
महर दया नहिं सिंह दिल, कूकर काग सियाल॥7॥
मांस अहारी मद पिवे, विषय विकारी सोय।
दादू आतम राम बिन, दया कहाँ थीं होय॥8॥
दादू लंगर लोग लोभ सौं लागैं बोलैं सदा उन्हीं की भीर।
जोर-जुल्म बीच बटपारे, आदि-अंत उनही सैं सीर॥9॥
तन-मन मार रहै सांई सौं, तिनको देखि करैं ताजीर।
यह बड़ि बूझ कहाँ तैं पाई, ऐसी कजा अवलिया पीर॥10॥
बे महर गुमराह गाफिल, गोश्त-खुरदनी।
बे दिल बदकार, आलम, हयात मुरदनी॥11॥

साँच

छल कर बल कर धाइ कर, मारे जिहिं तिहिं फेरि।
दादू ताहि न धीजिए, परणी सगी पतेरि॥12॥
दादू दुनियाँ सौं दिल बाँधकर, बैठे दीन गमाय।
नेकी नाम विसार कर, करद कमाया खाय॥13॥
दादू गल काटे कलमा भूरै, अया बिचारा दीन।
पाँचों वक्त नमाज गुजारै, साबित नहीं यकीन॥14॥
दुनियाँ के पीछे पड्या, दौड़्या-दौड़्या जाय।
दादू जिन पैदा किया, ता साहिब को छिटकाय॥15॥
कुफर जे के मन में, मीयाँ मुसलमान।
दादू पेया झंग में, बिसारे रहमान॥16॥
आपस को मारे नहीं पर को मारन जाइ।
दादू आपा मारे बिना, कैसे मिले खुदाइ॥17॥
भीतर दुन्दर भर रहे, तिनको मारे नाँहिं।
साहिब की अरवाह है, ताको मरण जाँहि॥18॥
दादू मूये को क्या मारिये, मीयाँ मूई मार।
आपस को मारे नहीं, औरों को हुसियार॥19॥

साँच

जिसका था तिसका हुआ, तो काहे का दोष।
दादू बंदा बंदगी, मीयाँ ना कर रोष॥20॥
सेवक सिरजनहार का, साहिब का बंदा।
दादू सेवा बंदगी, दूजा क्या धंधा॥21॥
सो काफिर जे बोले काफ, दिल अपणा नहिं रखे साफ।
सांई को पहिचाने नाँहीं, कूड़ कपट सब उनहीं माँहीं॥22॥
सांई का फरमान न मानैं, कहाँ पीव ऐसे कर जानैं।
मन अपणे में समझत नाँहीं, निरखत चले आपणी छाँहीं॥23॥
जोर करे मसकीन सतावे, दिल उसके में दर्द न आवे।
सांई सेती नाँहीं नेह, गर्व करे अति अपणी देह॥24॥
इन बातन क्यों पावे पीव, पर धन ऊपर राखे जीव।
जोर-जुल्म कर कुटुम्ब सौं खाइ, सो काफिर दोजख में जाइ॥25॥

अदया-हिंसा

दादू जाको मारणा जाइए, सोई फिर मारे।
जाको तारण जाइए, सोई फिर तारे॥26॥
दादू नफस नाम सौं मारिये, गोशमाल दे पंद।
दूई है सो दूर कर, तब घर में आनंद॥27॥

साँच (मुसलमान के लक्षण)

मुसलमान जो राखे मान, सांई का माने फरमान।
सारों को सुखदाई होइ, मुसलमान कर जानूँ सोइ॥28॥
दादू मुसलमान महर गह रहै, सबको सुख किस ही न दहै।
मुवा न खाय जिवत नहिं मारे, करे बंदगी राह सँवारे॥29॥
सो मोमिन मन में कर जाण, सत्य सबूरी वैसे आण।
चाले साँच सँवारे बाट, तिनकूं खुले भिश्त के पाट॥30॥
सो मोमिन मोम दिल होय, सांई को पहचाने सोय।
जोर न करे हराम न खाय, सो मोमिन भिश्त में जाय॥31॥

जैसा करना वैसा भरना

जे हम नहीं गुजारते, तुमकूँ क्या भाई।
सीर नहीं कुछ बंदगी, कहु क्यों फुरमाई॥32॥
अपने अमलों छूटिये, काहू के नाँहीं।
सोई पीड़ पुकारसी, जा दूखे माँहीं॥33॥
कोई खाय अघाइ कर, भूखे क्यों भरिये।
खूटी पूगी आन की, आपन क्यों मरिये॥34॥
फूटी नाव समुद्र में, सब डूबण लागे।
अपणा-अपणा जीव ले, सब कोई भागे॥35॥
दादू शिर-शिर लागी आपणे, कहु कौण बुझावे।
अपणा-अपणा साँच दे, सांई को भावे॥36॥

सुमिरण नाम चेतावनी

साँचा नाम अल्लाह का, सोइ सत्य कर जाण।
निश्चल करले बंदगी, दादू सो परमाण॥37॥
आवट कूटा होत है, अवसर बीता जाय।
दादू करले बंदगी, राखणहार खुदाय॥38॥
इस कलि केते ह्वै गये, हिन्दू मुसलमान।
दादू साँची बन्दगी, झूठा सब अभिमान॥39॥

कथनी बिना करणी

पोथी अपणा पिंड कर, हरि यश माँही लेख।
पंडित अपणा प्राण कर, दादू कथहु अलेख॥40॥
दादू काया कतेब बोलिए, लिख राखूँ रहमान।
मनवा मुल्ला बोलिए, श्रोता है सुबहान॥41॥
दादू काया महल में नमाज गुजारूँ, तहँ और न आवण पावे।
मन मणके कर तसबी फेरूँ, तब साहिब के मन भावे॥42॥
दादू दिल दरिया में गुसल हमारा, ऊजू कर चित लाऊँ।
साहिब आगे करूँ बन्दगी, बेर-बेर बलि जाऊँ॥43॥
दादू पंचों संग सँभालूँ सांइ, तन-मन तो सुख पाऊँ।
प्रेम पियाला पिवजी देवे, कलमा ये लै लाऊँ॥44॥
शोभा कारण सब करैं, रोजा बाँग नमाज।
मुवा न एकौ आह सौं, जे तुझ साहिब सेती काज॥45॥
दादू हर रोज हजूरी होइ रहु, काहै करे कलाप।
मुल्ला तहाँ पुकारिए, जहँ अर्श इलाही आप॥46॥
हर दम हाजिर होणा बाबा, जब लग जीवे बंदा।
दायम दिल सांई सौं साबित, पंच वक्त क्या धंधा॥47॥

हिन्दू मुसलमानों का भ्रम

दादू हिन्दू मारग कहैं हमारा, तुरक कहैं रह मेरी।
कहाँ पंथ है कही अलह का, तुम तो ऐसी हेरी॥48॥
दादू दुई दरोग लोग को भावे, सांई साँच पियारा।
कौण पंथ हम चलैं कहो धू, साधो करो विचारा॥49॥
खंड-खंड कर ब्रह्म को, पख-पख लीया बाँट।
दादू पूरण ब्रह्म तज, बँधे भरम की गाँठ॥50॥

मन विकार औषधि

जीवत दीसे रोगिया, कहैं मूवाँ पीछे जाय।
दादू दुँह के पाढ़ में, ऐसी दारू लाय॥51॥
सो दारू किस काम की, जाथैं दर्द न जाय।
दादू काटे रोग को, सो दारू ले लाय॥52॥
एक सेर का ठाँवड़ा, क्यों ही भर्या न जाय।
भूख न भागी जीव की, दादू केता खाय॥53॥
पशुवां की नांई भर-भर खाय, व्याधि घणेरी बधती जाय।
पशुवा की नांई करे अहार, दादू बाढ़े रोग अपार।
संयम सदा न व्यापे ब्याधी, रहै निरोगी लगे समाधी।
राम रसायन भर-भर पीवे, दादू जोगी जुग-जुग जीवे॥54॥
दादू चारे चित्त दिया, चिन्तामणि को भूल।
जन्म अमोलक जात है, बैठे माँझी फूल॥55॥
भरी अधौड़ी भावठी, बैठा पेट फुलाय।
दादू शूकर श्वान, ज्यों आवे त्यों खाय॥56॥

शिश्न-स्वाद

दादू खाटा-मीठा खाइ कर, स्वाद चित्त दीया।
इनमें जीव विलंबिया, हरि नाम न लीया॥57॥
भक्ति न जाणे राम की, इन्द्री के अधीन।
दादू बंध्या स्वाद सौं, तातैं नाम न लीन॥58॥

साँच

दादू अपणा नीका राखिये, मैं मेरा दिया बहाइ।
तुझ अपणे सेती काज है, मैं मेरा भावै तीधर जाइ॥59॥
जे हम जाण्या एक कर, तो काहे लोक रिसाय।
मेरा था सो मैं लिया, लोगों का क्या जाय॥60॥

करणी बिना कथणी

दादू द्वै-द्वै पद किये, साखी भी द्वै-चार।
हमको अनुभव ऊपजी, हम ज्ञानी संसार॥61॥
दादू सुण-सुण पर्चे ज्ञान के, साखी शब्दी होय।
तब ही आपा ऊपजे, हम-सा और न कोय॥62॥
दादू सो उपजी किस काम की, जे जण-जण करे कलेष।
साखी सुण समझे साधु की, ज्यौं रसना रस शेष॥63॥
दादू पद जोड़े साखी कहै, विषय न छाड़े जीव।
पाणी घाल बिलोइये, क्यों कर निकसे घीव॥64॥
दादू पद जोड़े का पाइये, साखि कहे का होइ।
सत्य शिरोमणि सांइयां, तत्त्व न चीन्हा सोइ॥65॥
कहबे-सुणबे मन खुशी, करबा औरै खेल।
बातों तिमर न भाजई, दीवा बाती तेल॥66॥
दादू करबे वाले हम नहीं, कहबे को हम शूर।
कहबा हम तैं निकट है, करबा हम तैं दूर॥67॥
दादू कहे-कहे का होत है, कहे न सीझे काम।
कहे-कहे का पाइये, जब लग हृदय न आवें राम॥68॥

चौंप (चाह) बिन चौंप चर्चा

दादू श्रेता घर नहीं, वक्ता बसे सु बादि।
वक्ता श्रोता एक रस, कथा कहावे आदि॥69॥
वक्ता श्रोता घर नहीं, कहै सुणे को राम।
दादू यहु मन थिर नहीं, बाद बके बेकाम॥70॥

विचार दृढ़ ज्ञान

देखा देखी सब चले, पार न पहुँच्या जाय।
दादू आसण पहल के, फिरि-फिरि बैठे आय।
अंतर सुरझे समझ कर, फिर न अरूझे जाय।
बाहर सुरझे देखतां, बहुर अरूझे आय॥71॥

झूठे गुरु

आत्मा लावे आप सौं, साहिब सेती नाँहिं।
दादू को निपजे नहीं, दोन्यों निष्फल जाँहिं॥72॥
तूं मुझ को मोटा कहै, हौं तुझे बड़ाई मान।
सांई को समझे नहीं, दादू झूठा ज्ञान॥73॥

कस्तूरिया मृग

सदा समीप रहै सँग सन्मुख, दादू लखे न गूझ।
स्वप्ने ही समझे नहीं, क्यों कर लहै अबूझ॥74॥

दादू सेवग नाम बोलाइये, सेवा स्वप्ने नाँहिं।
नाम धराये क्या भया, जे एक नहीं मन माँहिं॥75॥
नाम धरावें दास का, दासातन तैं दूर।
दादू कारज क्यों सरे, हरि सौं नहीं हजूर॥76॥
भक्त न होवे भक्ति बिन, दासातन बिन दास।
बिन सेवा सेवग नहीं, दादू झूठी आस॥77॥
राम भक्ति भावे नहीं, अपणी भक्ति का भाव।
राम भक्ति मुख सौं कहै, खेले अपना दाँव॥78॥
भक्ति निराली रह गई, हम भूले पड़े वन माँहिं।
भक्ति निरंजन राम की, दादू पावे नाँहिं॥79॥
सो दशा कत हूँ रही, जिहिं दिशि पहुँचे साध।
मैं तैं मूरख गह रहे, लोभ बड़ाई वाद॥80॥
दादू राम विसार कर, कीये बहुत अपराध।
लाजों मारे संत सब, नाम हमारा साध॥81॥

करणी बिना कथणी

मनसा के पक्वान्न सौं, क्यों पेट भरावे।
ज्यों कहिए त्यों कीजिए, तब ही बन आवे॥82॥
दादू मिश्री-मिश्री कीजिए, मुख मीठा नाँहीं।
मीठा तब ही होइगा, छिटकावे माँहीं॥83॥
दादू बातों ही पहुँचे नहीं, घर दूर पयाना।
मारग पंथी उठ चले, दादू सोइ सयाना॥84॥
दादू बातों सब कुछ कीजिए, अन्त कछू नहिं देखे।
मनसा वाचा कर्मना, तब लागे लेखे॥85॥

समझ सुजानत-सब जीवों में ज्ञान

दादू कासौं कह समझाइये, सबको चतुर सुजान।
कीड़ी कुंजर आदि दे, नाहिं न कोइ अजान॥86॥
दादू सूना घट सोधी नहीं, पंडित ब्रह्मा पूत।
आगम निगम सब कथैं, घर में नाचे भूत॥87॥
पढ़े न पावे परमगति, पढे न लंघे पार।
पढे न पहुँचे प्राणियाँ, दादू पीड़ पुकार॥88॥
दादू निवरे नाम बिन, झूठा कथैं गियान।
बैठे शिर खाली करैं, पंडित वेद पुरान॥89॥
दादे केते पुस्तक पढ़ मुये, पंडित वेद पुरान।
केते ब्रह्मा कथ गये, नाँहिं न राम समान॥90॥
दादू सब हम देख्या सोधकर, वेद कुरानों माँहिं।
जहाँ निरंजन पाइए, सो देश दूर इत नाँहिं॥91॥
काजी कजा न जान ही, कागज हाथ कतेब।
पढ़तां-पढतां दिन गये, भीतर नाँहीं भेद॥92॥
मसि-कागद के आसरे, क्यों छूटे संसार।
राम बिन छूटे नहीं, दादू भरम विकार॥93॥
कागज काले कर मुये, केते वेद पुरान।
एकै अक्षर पीव का, दादू पढे सुजान॥94॥
कहतां-कहतां दिन गये, सुनतां-सुनतां जाय।
दादू ऐसा को नहीं, कह सुन राम समाय॥95॥

मध्य निष्पक्ष

मौन गहैं ते बावरे, बोलैं खरे अयान।
सहजैं राते राम सौं, दादू सोइ सयान॥96॥

करुणा

कहतां-सुणतां दिन गये, ह्वै कछू न आवा।
दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछतावा॥97॥

दुर्जन

दादू कथणी और कुछ, करणी करै कुछ और।
तिन तैं जिव डरे, जिनके ठीक न ठौर॥98॥
अंतरगत औरै कछू, मुख रसना कुछ और।
दादू करणी और कुछ, तिनको नाँहीं ठौर॥99॥

मन प्रबोध

राम मिलन की कहत हैं, करते कुछ औरे।
ऐसे पिव क्यों पाइये, समझी मन बौरे॥100॥

बेखर्च व्यसनी

दादू बगनी भंगा खाय कर, मतवाले माँझी।
पैका नाहीं गाँठड़ी, पातशाही खाँजी॥101॥
दादू टोटा दालिदी, लाखों का व्यापार।
पैका नाहीं गाँठड़ी, सिरै साहूकार॥102॥

मध्य निष्पक्ष-सब मतों का निशाना एक

दादू ये सब किसके पंथ में धरती अरु आस्मान।
पाणी पवन दिन-रात का, चन्द सूर रहमान॥103॥
ब्रह्मा विष्णु महेश का, कौण पंथ गुरुदेव।
सांई सिरजनहार तूं, कहिए अलख अभेव॥104॥
मुहम्मद किसके दीन में, जिब्राईल किस राह।
इनके मुरशिद पीर की, कहिए एक अल्लाह॥105॥
दादू ये सब किसके ह्वै रहे, यहु मेरे मन माँहिं।
अलख इलाही जगद् गुरु, दूजा कोई नाँहिं॥106॥

पतिव्रत व्यभिचार

दादू औरैं ही औला तके, थीयां सदै बियंनि।
सो तूं मीया ना धुरे, जो मीयां मीयंनि॥107॥

सद्गुरु परीक्षा

आई रोजी ज्यों गई, साहिब का दीदार।
गहला लोगों कारणै, देखे नहीं गँवार॥108॥

पतिव्रत निष्काम

दादू सोई सेवक राम का, जिसे न दूजी चिंत।
दूजा को भावे नहीं, एक पियारा मिंत॥109॥

जाति-पाँति भ्रम विध्वंसन

अपणी-अपण्साी जाति सौं, सबको बैसैं पाँति।
दादू सेवग राम का, ताके नहीं भराँति॥110॥
चोर अन्याई मसकरा, सब मिल बैसैं पाँति।
दादू सेवग राम का, तिनसौं करैं भराँति॥111॥
दादू सूप बजायाँ क्यों टले, घर में बड़ी बलाइ।
काल झाल इस जीव का, बातन ही क्यों जाइ॥112॥
साँप गया सहनाण को, सब मिल मारैं लोक।
दादू ऐसा देखिए, कुल का डगरा फोक॥113॥
दादू दोन्यों भरम हैं, हिन्दू तुरक गँवार।
जे दुहुवाँ तैं रहित है, सो गह तत्त्व विचार॥114॥
अपणा-अपणा कर लिया, भंजन माँही बाहि।
दादू एकै कूप जल, मन का भरम उठाइ॥115॥
दादू पाणी के बहु नाम धर, नाना विधि की जात।
बोलणहारा कौण है, कहो धौं कहा समात॥116॥
जब पूरण ब्रह्म विचारिए, तब सकल आतमा एक।
काया के गुण देखिए, तो नाना वरण अनेक॥117॥

अमिट पाप-प्रचंड

भाव भक्ति उपजे नहीं, साहिब का परसंग।
विषय विकार छूटे नहीं, सो कैसा सतसंग॥118॥
बासण विषय विकार के, तिनको आदर-मान।
संगी सिरजनहार के, तिनसौं गर्व-गुमान॥119॥

अज्ञ स्वभाव अपलट

अंधे को दीपक दिया, तो भी तिमर न जाय।
सोधी नहीं शरीर की, तासन का समझाय॥120॥

सगुणा-निगुणा कृतघ्नी

दादू कहिए कुछ उपकार को, मानैं अवगुण दोष।
अंधे कूप बताइया, सत्य न मानैं लोक॥121॥
जिन कंकर-पत्थर सेविया, सो अपना मूल गँवाय।
अलख देव अन्तर बसे, क्या दूजी जगह जाय॥122॥
पत्थर पीवे धोइ कर, पत्थर पूजे प्राण।
अन्तकाल पत्थर भये, बहुत बूडे इहिं ज्ञान॥123॥
कंकर बंध्या गाँठड़ी, हीरे के विश्वास।
अंत काल हरि जौहरी, दादू सूत कपास॥124॥

आगम संस्कार

पहली पूजे ढूँढसी, अब भी ढूँढस बाणि।
आगे ढूँढस होयगा, दादू सत्य कर जाणि॥125॥

अमिट पाप प्रचंड

दादू पैंडे पाप के, कदे न दीजे पाँव।
जिहिं पैंडे मेरा पिव मिले, तिहिं पैंडे का चाव॥126॥
दादू सुकृत मारग चालतां, बुरा न कबहूँ होइ।
अमृत खातां प्राणियाँ, मुवा न सुनिए कोइ॥127॥

भ्रम विध्वंसन

कुछ नाँहीं का नाम क्या, जे धरिये सो झूठ।
सुर नर मुनि जन बंधिया, लोका आवट कूट॥128॥
कुछ नाँहीं का नाम धर, भरम्या सब संसार।
साँच-झूठ समझे नहीं, ना कुछ किया विचार॥129॥
दादू कोई दौड़े द्वारिका, केई काशी जाँहिं।
केई मथुरा को चले, साहिब घट की माँहिं॥130॥
ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट माँहिं।
दादू एता अन्तरा, तातैं बणती नाँहिं॥131॥
दादू सब थे एक के, सो एक न जाना।
जने-जने का ह्वै गया, यहु जगत् दिवाना॥132॥

साँच

झूठा साँचा कर लिया, विष अमृत जाना।
दुख को सुख सब को कहै, ऐसा जगत् दिवाना॥133॥
सूधा मारग साँच का, साँचा हो सो जाय।
झूठा कोई ना चले, दादू दिया दिखाय॥134॥
साहिब सौं साँचा नहीं, यहु मन झूठा होय।
दादू झूठे बहुत हैं, साँचा बिरला कोय॥135॥
दादू साँचा अंग न ठेलिए, साहिब मानें नाँहिं।
साँचा सिर पर राखिए, मिल रहिए ता माँहिं॥136॥
दादू जे कोई ठेले साँच को, तो साँचा रहै समाय।
कौड़ी बर क्यों दीजिए, रत्न अमोलक जाय॥137॥
दादू साँचे साहिब को मिले, साँचे मारग जाय।
साँचे सौं साँचा भया, तब साँचे लिये बुलाय॥138॥
दादू साँचा साहिब सेविए, साँची सेवा होय।
साँचा दर्शन पाइए, साँचा सेवग सोय॥139॥
दादू साँचे का साहिब धणी, समर्थ सिरजनहार।
पाखंड की यहु पृथ्वी, प्रपंच का संसार॥140॥
झूठा परगट साँचा छाने, तिनकी दादू राम न माने॥141॥
दादू पाखंड पीव न पाइए, जे अंतर साँच न होय।
ऊपरि तैं क्यों ही रहो, भीतर के मल धोय॥142॥
साँच अमर जुग-जुग रहै, दादू विरला कोय।
झूठ बहुत संसार में, उत्पति परलै होय॥143॥
दादू झूठा बदलिए, साँच न बदल्या जाय।
साँचा शिर पर राखिए, साध कहै समझाय॥144॥
साँच न सूझे जब लगैं, तब लग लोचन अंध।
दादू मुक्ता छाड कर, गल में घाल्या फंध॥145॥
साँच न सूझे जब लगैं, तब लग लोचन नाँहिं।
दादू निरबँध छाड़कर, बंध्या द्वै पख माँहिं॥146॥
एक साँच सौं गहगही, जीवण-मरण निबाहि।
दादू दुखिया राम बिन, भावै तीधर जाहि॥147॥

चेतावनी

दादू छाने-छाने कीजिए, चौड़े परकट होय।
दादू पैस पयाल में, बुरा करे जनि कोय॥148॥
दादू अन कीया लागे नहीं, कीया लागे आय।
साहिब के दर न्याव है, जे कुछ राम रजाय॥149॥

आत्मार्थी भेष

सोइ जन साधू सिद्ध सो, सोइ सतवादी शूर।
सोइ मुनिवर दादू बड़े, सन्मुख रहणि हजूर॥150॥
दादू सोइ जन साँचे सो सती, साधक सोइ सुजान।
सोइ ज्ञानी सोइ पंडिता, जे राते भगवान॥151॥
सोइ जोगी सोइ जंगमा, सोइ सूफी सोइ शेख।
सोइ संन्यासी, सेवड़े, दादू एक अलेख॥152॥
दादू सोइ काजी सोइ मुल्ला, सोइ मोमिन मुसलमान।
सोइ सयाने सब भले, जे राते रहमान॥153॥
राम नाम को बणि जन बैठे, तातैं मांड्या हाट।
सांई सौं सौदा करैं, दादू खोल कपाट॥154॥

सज्जन दुर्जन

बिच के शिर खाली करैं, पूरे सुख संतोष।
दादू सुध-बुध आतमा, ताहि न दीजे दोष॥155॥
सुध-बुध सौं सुख पाइये, कै साधु विवेकी होय।
दादू ये बिच के बुरे, दाधे रीगे सोय॥156॥
दादू जिन कोई हरिनाम में, हमको हाना बाहि।
तातैं तुम तैं डरत हूँ, क्यों ही टले बलाइ॥157॥

परमार्थी

जे हम छाड़ैं राम को, तो कौन गहेगा।
दादू हम नहिं उच्चरैं, तो कौण कहेगा॥158॥

साधक को उपदेश

एक राम छाडे नहीं, छाडे सकल विकार।
दूजा सहजैं होइ सब, दादू का मत सार॥159॥
जे तूं चाहै राम को, तो एक मना आराध।
दादू दूजा कर, मन इन्द्री कर साध॥160॥

विरक्तता

कबीरा बिचारा कह गया, बहुत भाँति समझाय।
दादू दुनिया बाबवरी, ताके संग न जाय॥161॥

सूक्ष्म मार्ग

पावहिंगे उस ठौर को, लंघैगे यह घाट।
दादू क्या कह बोलिए, अजहूँ बिच ही बाट॥162॥

साँच

साँचा राता साँच सौं, झूठा राता झूठ।
दादू न्याव नबेरिये, सब साधों को पूछ॥163॥
दादू जे पहुँचे ते कह गये, तिन की एकै बात।
सबै सयाने एक मत, उनकी एकै जात॥164॥
जे पहुँचे ते पूछिए, तिनकी एकै बात।
सब साधों का एक मत, ये बिच के बारह बाट॥165॥
सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक।
दादू मारग माँहिले, तिनकी बात अनेक॥166॥
सूरज साक्षी भूत है, साँच करे परकाश।
चोर डरे चोरी करे, रैन तिमर का नाश॥167॥
चोर न भावे चाँदणा, जनि उजियारा होय।
सूते का सब धन हरूँ, मुझे न देखे कोय॥168॥

संस्कार आगम

घट-घट दादू कह समझावे, जैसा करे सो तैसा पावे।
को काहू का सीरी नाँहीं, साहिब देखे सब घट माँहीं॥169॥

॥इति साँच का अंग सम्पूर्ण॥