भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अदब अब सभी के दफ़ा हो गए हैं / उर्मिला माधव
Kavita Kosh से
अदब अब सभी के दफ़ा हो गए हैं,
बुज़ुर्गाने आला ख़फा हो गए है
समेटे नहीं जा सके दिल के टुकड़े,
ये हिस्से भी कितनी दफ़ा हो गए हैं,
सिखाई मुहब्बत-ऑ-तहज़ीब जिनको,
जवां क्या हुए, बे-वफ़ा हो गए हैं,
मुहब्बत के मानी बचे ही कहाँ कुछ,
फ़क़त अब ज़ियाँ और नफ़ा हो गए हैं
वो सर को झुकाना ऑ तस्लीम कहना,
किताबों का बस फ़लसफ़ा होगये हैं!