अदरक की गंध वाला कवि / कुमार कृष्ण
कितना अच्छा होता-
कविता कि रोटी खाने वाले भी सोचते
कुछ-कुछ सुरेश सेन की तरह
ठीक ही कहा था उस दिन तुमने-
एक गंभीर विधा है कविता
जिसे लिख रहे हैं कुछ अगम्भीर लोग
शायद थोड़ा बहुत सोचते हैं उसके बारे में आत्माराम
खेलते हुए बच्चों के मार्फत
दिवंगत माँ की चोलू-बास्केट के साथ अजय
या फिर गांधी के काले पाँव, टूटे-चश्मे से कुल राजीव
उस दिन चार घण्टों की उपस्थिति के बाद
जान गया मैं पूरी तरह
ठीक ही कहते हो तुम-'कुछ थे जो कवि थे'
ठीक ही कहते हो-
' क्या कविता के लय भर में आने से
समस्याएँ हल हो जाएंगी कविता की
क्या कविता को लय में देख
भूल जाएंगे अपने दुःख वे सभी
जो छटनी की तलवार से हुए हैं हताहत
जिनकी ओर पीठ किए खड़े थे सभी कवि
जब बैठे थे वे धरने पर'
प्रिय भाई भूल चुके हैं लोग पूरी तरह-
कविता है एक सामाजिक संवाद
वह है पृथ्वी का राग, शब्दों का सपना
धरती की धरोहर, ज़िन्दगी का बीजगणित
दिलो-दानिश की शरारत
इनसानियत की अध्यापिका, संवेदना का संदूक
वह है आग और राग का बादल
अमर्ष और संघर्ष का दरिया
मुक्तिबोध का चांद, ऋतुराज का अबेकस
केदार का बाघ, सुदामा पाण्डे का प्रजातन्त्र
वह है खुरों की तकलीफ़, मनुष्यता का दुःख
रात में हारमोनियम
वहाँ नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द
वह जानती है बनाना अच्छा आदमी
अच्छा आदमी जो मरता है आधी उम्र में अनगिनत सपनों के साथ
मैंने रास्ते से गुजरते हुए ही देखा है तुम्हारा सुन्दरनगर
आखिर क्यों कहते हैं उसे सुन्दरनगर
आखिर क्या है उस नगर में सुन्दर
तुम्हारे सुन्दरनगर के बारे में मैं नहीं जानता ज़्यादा
पर इतना ज़रूर जानता हूँ-
जैसे टूट-टूट कर पहुँच रहा है लेदा राजधानी तक
वैसे ही आएगा एक दिन कोई जयप्रकाश
और खरीद लेगा तुम्हारा खूबसूरत 'सलाह'
विकास के रजिस्टर में दफ्न हो जाएंगे तुम्हारे-
तमाम खेत-खलिहान, आंगन-अलाव
राजधानी नहीं समझ सकती
तराशे हुए पत्थरों की पीड़ा
नहीं जानती राजधानी-
रोता है कितनी बार लेदा का पहाड़
लोग खिंचवा रहे हैं अपनी तस्वीरें
खूबसूरत इमारतों के साथ
हो रहे हैं खुश उनको देखकर हर बार
कितना अच्छा होता-
तस्वीरें खिंचवाने वाले लोग समझ पाते एक बार
लेदा के पहाड़ की तकलीफ़
समझ पाते अदरक की गंध वाले कवि का गीत।