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अद्भुत समय / सुभाष मुखोपाध्याय
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यह एक बड़ा अद्भुत समय है
पुरानी बुनियादें जब
रेत की तरह ढह रही हैं
हम भाई-बंधु ठीक तभी
टुकड़ों-टुकड़ों में बँटे जा रहे हैं!
किसने अपनी आस्तीन के नीचे
जाने किसके लिए
कौन-सी हिंस्रता छुपा रखी है
हमें नहीं पता,
कंधे पर हाथ रखते हुए भी अब डर लगता है।
अंधेरे में चिरी हुई जीभें
जब फुसफुसाती हैं
तो लगता है कोई हमें अदृश्य आरी से
बहुत महीन टुकड़ों में काट रहा है।
जब
एक साथ मुट्ठी भींचकर खड़ें हो सकने से ही
हम सब कुछ पा सकते थे -
तब
विभेद का एक टुकड़ा माँस मुँह में खोंसकर
चोरों के झुण्ड
हमारा सर्वस्व लिए जा रहे हैं!!
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी